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तीसरा उद्देशक ]
२२. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के घर में चार या पांच गाथाओं द्वारा कथन करना, उनका अर्थ करना, , धर्माचरण का फल कहना एवं विस्तृत विवेचन करना नहीं कल्पता है। किन्तु आवश्यक होने पर केवल एक उदाहरण, एक प्रश्नोत्तर, एक गाथा या एक श्लोक द्वारा कथन करना कल्पता है ।
वह भी खड़े रहकर कंथन करे, बैठकर नहीं ।
विवेचन - गोचरी के लिए गये हुए साधु या साध्वियां गृहस्थ के घर में खड़े होकर गाथा, श्लोक आदि का उच्चारण ही न करें। यह उत्सर्गमार्ग है ।
भाष्यकार ने इसका कारण बताया है कि जहां पर साधु खड़ा होगा वहां से यदि किसी की कोई वस्तु चोरी चली जायेगी तो उसका स्वामी यह लांछन लगा सकता है कि यहां पर अमुक साधु या साध्वियां खड़े रहे थे । अतः वे ही मेरी अमुक वस्तु ले गये हैं, इत्यादि ।
इसके अतिरिक्त किसी गृहस्थ के विवादास्पद प्रश्न के उत्तर में वहां आक्षेप - व्याक्षेप में समय व्यतीत होगा । उससे उसके साथी साधु, जो कि एक मण्डली में बैठकर भोजन करते हैं, प्रतीक्षा करते रहेंगे, अतः उनके यथासमय भोजन न कर सकने से वह अन्तराय का भागी होगा ।
दूसरे, यदि वह किसी रोगी साधु से यह कहकर आया है कि- 'आज मैं तुम्हारे लिए शीघ्र योग्य भक्त-पान लाऊंगा', फिर वाद-विवाद में पड़कर समय पर वापस नहीं पहुँच सकने से वह भूखप्यास से पीड़ित होकर और अधिक संताप को प्राप्त होगा, इत्यादि कारणों से गोचरी को गये हुए साधु और साध्वियों को कहीं भी अधिक वार्तालाप नहीं करना चाहिए अन्यथा वह चतुर्लघु से लेकर यथासम्भव अनेक प्रायश्चित्तों का पात्र होता है ।
अपवाद रूप में यह बताया गया है कि गोचरी को गये साधु या साध्वी से यदि कोई जिज्ञासु पूछे कि 'धर्म का लक्षण क्या है ?' तब वह 'अहिंसा परमो धर्मः' इतना मात्र संक्षिप्त उत्तर देवे। यदि कोई पुनः पूछे कि धर्म की कुछ व्याख्या कीजिए, तब इतना मात्र कहे कि 'अपने लिए जो तुम इष्ट या अनिष्ट मानते हो वह दूसरे के लिए भी वैसा ही समझो, बस इतना ही जैनशासन का सार है।
यदि जिज्ञासु उक्त कथन की पुष्टि में कोई प्रमाण पूछे तो उक्त अर्थ- द्योतक एक गाथा कहे ।
'सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाई पासओ ।
पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ ॥ '
यथा
- दशवै. अ. ४, गा. ९
वह भी खड़ा खड़ा ही कहे, बैठकर नहीं । अन्यथा उपर्युक्त दोषों के कारण वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।