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________________ तीसरा उद्देशक] [१८१ इसके अतिरिक्त साधु और साध्वी कम से कम और अधिक से अधिक कितने वस्त्र-उपधि रख सकते हैं, भाष्यकार ने इसका तथा अन्य अनेक ज्ञातव्य विषयों का और करणीय कार्यों का भी वर्णन किया है। वह सब विशेष जिज्ञासु जनों को सभाष्य बृहत्कल्पसूत्र से जानना चाहिए। साध्वी को अपनी निश्रा से वस्त्र ग्रहण करने का निषेध १३. निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठाए चेलढे समुप्पज्जेज्जा नो से कप्पइ अप्पणो निस्साए चेलं पडिग्गाहेत्तए। कप्पड़ से पवत्तिणी-निस्साए चेलं पडिग्गाहित्तए। नो य से तत्थ पवत्तिणी सामाणा सिया, जे से तत्थ सामाणे आयरिए वा, उवज्झाए वा, पवत्तए वा, थेरे वा, गणी वा, गणहरे वा, गणावच्छेइए वा, जं च अन्नं पुरओ कटु विहरइ। .. कप्पइ से तन्नीसाए चेलं पडिग्गाहेत्तए। १३. गृहस्थ के घर में आहार के लिए गई हुई निर्ग्रन्थियों को यदि वस्त्र की आवश्यकता हो तो अपनी निश्रा से वस्त्र लेना नहीं कल्पता है। किन्तु प्रवर्तिनी की निश्रा से वस्त्र लेना कल्पता है। यदि वहां प्रवर्तिनी विद्यमान न हो तो जो आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर या गणावच्छेदक हो अथवा जिनकी प्रमुखता से विचरण कर रही हो, उनकी निश्रा से वस्त्र लेना कल्पता है। विवेचन-यदि कोई साध्वियां भक्त-पान लेने के लिए गृहस्थ के घर गई हों और उनमें से किसी एक को वस्त्र की आवश्यकता हो तो उसे अपनी निश्रा से अर्थात् 'यह वस्त्र मैं मेरे लिए ग्रहण कर रही हूँ' इस प्रकार कहकर गृहस्थ से वस्त्र लेना नहीं कल्पता है। किन्तु वह प्रवर्तिनी की निश्रा से ग्रहण कर सकती है, अर्थात् वह गृहस्थ से वस्त्र लेते समय स्पष्ट शब्दों में कहे कि-'मैं प्रवर्तिनी की निश्रा से इसे ग्रहण करती हूँ, वे इसे स्वीकार कर किसी साध्वी को देंगी तो रखा जाएगा अन्यथा आपको वापस लौटा दिया जाएगा।' ऐसा कहकर ही वह गृहस्थ से वस्त्र को ग्रहण कर सकती है, अन्यथा नहीं। यदि उसकी प्रवर्तिनी उपाश्रय में या उस ग्राम में न हो तो जो आचार्य या उपाध्याय आदि सूत्रोक्त साधुजन समीप में हों, उनकी निश्रा से वह वस्त्र को ग्रहण कर सकती है। सूत्रोक्त आचार्य आदि का स्वरूप इस प्रकार है १. आचार्य-जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इन पांच आचारों का स्वयं पालन करे और आज्ञानुवर्ती शिष्यों से पालन करावे, जो साधुसंघ का स्वामी और संघ के अनुग्रह-निग्रह, सारणवारण और धारण में कुशल हो, लोक-स्थिति का वेत्ता हो, आचारसम्पदा आदि आठ सम्पदाओं से युक्त हो। व्यव. उ. ३, सूत्र. ५ कथित गुणों का एवं सूत्रों का धारक हो। २. उपाध्याय-जो स्वयं द्वादशांगश्रुत का विशेषज्ञ हो, अध्ययनार्थ आने वाले शिष्यों को आगमों का अभ्यास कराने वाला हो और व्यव. उ. ३, सू. ३ में कहे गये गुणों का एवं सूत्रों का धारक हो।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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