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________________ १८० ] [ बृहत्कल्पसूत्र १२. कप्पइ निग्गंथीणं उग्गहणन्तगं वा, उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा, परिहरित्तए वा । ११. निर्ग्रन्थों को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है । १२. निर्ग्रन्थियों को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है। विवेचन - गुप्त अंग के ढकने वाले लंगोट या कौपीन को अवग्रहानन्तक कहते हैं और उसके भी ऊपर उसे आच्छादन करने वाले वस्त्र को अवग्रहपट्टक कहते हैं । प्रथम सूत्र में साधुओं के लिए इन दोनों का निषेध किया गया है और दूसरे सूत्र में साध्वियों के लिए इन दोनों के रखने और पहिनने का विधान किया गया है। यद्यपि सूत्र में उक्त दोनों उपकरण भिक्षु को रखने का स्पष्ट निषेध है, तथापि भाष्यकार ने लिखा है कि यदि किसी साधु को भगन्दर, अर्श आदि रोग हो जाए तो उस अवस्था में अन्य वस्त्रों को रक्त- पीप से बचाने के लिए वह अवग्रहपट्टक रख सकता है। साध्वियों को दोनों उपकरण रखने का और पहिनने का कारण यह है कि ऋतुकाल में साध्वियों के ओढ़ने- पहिनने के वस्त्र रक्त-रंजित न हों, अतः उस समय उक्त दोनों वस्त्रों को उपयोग में लाने और शेष काल में समीप रखने का विधान किया गया है। विहार आदि में शीलरक्षा के लिये भी इन उपकरणों का पहनना आवश्यक होता है। प्रश्न- साध्वियों के लिए कितने वस्त्र - पात्रादि रखने का विधान है ? उत्तर - नियुक्ति और भाष्यकार ने २५ प्रकार की उपधि रखने का निर्देश किया है। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. पात्र, २. पात्रबन्ध, ३. पात्रस्थापन, ४. पात्रकेसरिका, ५. पटलक, ६. रजस्त्राण, ७. गोच्छक, ८-१० तीन चादर (प्रच्छादक वस्त्र), ११. रजोहरण, १२. मुखवस्त्रिका, १३. मात्रक, १४. कमढक (चोलपट्टकस्थानीय वस्त्र, शाटिका), १५. अवग्रहानन्तक (गुह्यस्थानाच्छदक-लंगोटी), १६. अवग्रहपट्टक ( लंगोटी के ऊपर कमर पर लपेटने का वस्त्र), १७. अर्द्धसक (आधी जांघों को ढकने वाला जांघिया जैसा वस्त्र), १८. चलनिका (अर्द्धसक से बड़ा, घुटनों को भी ढंकने वाला वस्त्र), १९. अभ्यन्तर निवसिनी ( आधे घुटनों को ढकने वाली), २०. बहिर्निवसन (पैर की एड़ियों को ढकने वाली), २१. कंचुक (चोली), २२. औपकक्षिकी (चोली के ऊपर बांधी जाने वाली), २३. वैकक्षिकी (कंचुक और औपकक्षिकी को ढकने वाली), २४. संघाटी (वसति में पहनी जाने वाली), २५. स्कन्धकरणी (कन्धे पर डालने का वस्त्र ) । इस प्रकार आर्यिकायों के २५ उपधि या उपकरण होते हैं। भाष्यकार ने स्कन्धकरणी के साथ रूपवती साध्वियों को कुब्ज - करणी रखने या बांधने का भी विधान किया है। इसका अभिप्राय यह है कि रूपवती साध्वी को देखकर कामुक पुरुष चल-चित्त हो सकते हैं, अत: रूपवती साध्वी को विकृतरूपा बनाने के लिए पीठ पर वस्त्रों की पोटली रखकर बांध देते हैं, जिससे कि वह कुबड़ी-सी दिखने लगे। इसी कारण इस उपधि का नाम कुब्ज-करणी रखा गया है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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