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________________ दूसरा उद्देशक] [१६९ २२. सागारिक के घर से अन्य घर ले जाये गये आहार को उस गृहस्वामी ने स्वीकार कर लिया है। यदि वह उस आहार में से साधु को दे तो लेना कल्पता है। विवेचन-दूसरों के घर से शय्यातर के घर पर लाई जा रही खाद्यसामग्री 'आहृतिका' कही गई है और शय्यातर की जो खाद्यसामग्री अन्य के घर ले जाई जा रही हो वह 'निहतिका' कही गई है। ऐसी शय्यातर सम्बन्धी आहृतिका एवं निहतिका सामग्री साधु किस स्थिति में ग्रहण कर सकता है, यह इन चार सूत्रों में बताया गया है। ये आहृतिका निहतिका किसी त्योहार या महोत्सव के निमित्त से हो सकती है। यदि आहृतिका या निहतिका सामग्री में से कोई व्यक्ति साधु को ग्रहण करने के लिए कहे तो शय्यातर की आहृतिका का आहार जब तक शय्यातर के स्वामित्व में नहीं हुआ है, तब तक ग्रहण किया जा सकता है। शय्यातर की निहतिका का आहार दूसरे के ग्रहण करने के बाद उससे लिया जा सकता है। शय्यातर की निहतिका बांटने वाले से आहार नहीं लिया जा सकता है, किन्तु शय्यातर की आहृतिका बांटने वाले से उसका आहार लिया जा सकता है। __ पूर्व सूत्र में शय्यातर का आहार अन्य अनेक लोगों के आहार के साथ अलग या मिश्रित शय्यातर के घर की सीमा में या अन्यत्र कहीं हो, उसी का कथन है और इन सूत्रों में शय्यातर के घर में हो या अन्यत्र हो, शय्यातर का हो या अन्य का हो, दिया जाने वाला हो या लिया जाने वाला हो, वह आहार जब तक शय्यातर के स्वामित्व में नहीं हुआ है या अन्य ने अपने स्वामित्व में ले लिया है तो उस आहार को ग्रहण किया जा सकता है और वह आहार जब तक शय्यातर के स्वामित्व में है या अन्य का लाया गया आहार उसने स्वीकार कर लिया है तो वह आहार साधु ग्रहण नहीं कर सकता है इत्यादि कथन है। दोनों प्रकरणों में यह अन्तर समझना चाहिये।। आहतिका एवं निहतिका बांटने वाला जहां हो उस समय भिक्षु भी सहजरूप में वहां गोचरी के लिये भ्रमण करते हुए पहुंच जाये और बांटने वाला या लेने वाला निमन्त्रण करे इस अपेक्षा से यह सूत्रोक्त कथन है, ऐसा समझना चाहिये। शय्यातर के अंशयुक्त आहार-ग्रहण का विधि-निषेध २३. सागारियस्स अंसियाओ-१.अविभत्ताओ, २. अव्वोछिन्नाओ, ३. अव्वोगडाओ, ४. अनिज्जूढाओ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए। २४. सागारियस्स अंसियाओ-विभत्ताओ, वोच्छिन्नाओ, वोगडाओ, निज्जढाओ तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिगाहेत्तए। २३. सागारिक तथा अन्य व्यक्तियों के संयुक्त आहारादि का यदि-१. विभाग निश्चित नहीं किया गया हो, २. विभाग न किया गया हो, ३. सागारिक का विभाग अलग निश्चित न किया गया हो, ४. विभाग बाहर निकालकर अलग न कर दिया हो, ऐसे आहार में से साधु को कोई दे तो लेना नहीं कल्पता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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