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________________ [ बृहत्कल्पसूत्र प्रस्तुत सूत्र में सचित्त पानी का कथन न होकर अचित्त पानी का कथन है। इसका तात्पर्य यही है कि साधु के द्वारा अचित्त पानी का सहज ही उपयोग किया जा सकता है। सचित्त पानी का साधु द्वारा पीना सहज सम्भव नहीं है। १६२] अचित्त जल युक्त स्थान में ठहरने पर किसी भिक्षु को रात्रि में प्यास लग जाए, उस समय वह यदि उस जल को पी ले तो उसका रात्रिभोजनविरमणव्रत खंडित हो जाता है, अतः ऐसे शंका के स्थानों में ठहरने का निषेध किया है। सूत्र में शीतल एवं उष्ण जल के साथ 'वियड' शब्द का प्रयोग है, अन्य आगमों में यह भिन्नभिन्न अर्थ में एवं विशेषण के रूप में प्रयुक्त है। इस विषय की विशेष जानकारी के लिये निशीथ उ. १९ सूत्र १ - ७ का विवेचन देखें। अग्नि या दीपक युक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध और प्रायश्चित्त ६. उवस्सयस्स अंतोवगडाए, सव्वराइए जोई झियाएज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए । हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पड़ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए । नो से कप्प परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए । जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से सन्तरा छेए वा परिहारे वा । ७. उवस्सयस्स अंतोवगडाए, सव्वराइए पईवे दिप्पेज्जा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए । हुरत्था व उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पड़ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए । नो से क़प्पड़ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए । तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से सन्तरा छेए वा परिहारे वा । ६. उपाश्रय के भीतर सारी रात अग्नि जले तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' भी रहना नहीं कल्पता है । कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो उक्त उपाश्रय में एक या दो रात रहना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है। जो वहां एक या दो रात से अधिक रहता है, वह मर्यादा - उल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद यां तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है । ७. उपाश्रय के भीतर सारी रात दीपक जले तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' भी रहना नहीं कल्पता है । कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो उक्त उपाश्रय में एक या दो रात रहना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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