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[बृहत्कल्पसूत्र गये धान्य रखने के पात्र-विशेष को पल्य कहते हैं। ऐसे पल्य के भीतर सुरक्षित रखे हुए धान्य को 'पल्यागुप्त' कहते हैं।
मंचागुप्त-तीन या चार खम्भों के ऊपर बनाये गये मचान पर बांस की खपच्चियों से निर्मित गोलाकार और चारों ओर से गोबर-मिट्टी से लिप्त ऐसे मंच में सुरक्षित रखे गये धान्य को 'मंचागुप्त' कहते हैं।
मालागुप्त-मकान के ऊपर की मंजिल के द्वार आदि को अच्छी तरह बन्द करके रखे गये धान्य को 'मालागुप्त' कहते हैं।
इन स्थानों में धान्य को रख कर उसे मिट्टी से छाब दिया गया है, गोबर से लीपा गया है, ढंका हुआ है, चिह्नित किया गया है और मूंद दिया गया है, जिसके भीतर रखा गया धान्य स्वयं बाहर नहीं निकल सकता है और वर्षाकाल में जिसके बाहर निकाले जाने की संभावना भी नहीं है, ऐसे मकान में साधु या साध्वियां चौमासे में ठहर सकते हैं; किन्तु भाष्यकार कहते हैं कि उक्त प्रकार के मकानों में ठहरने का विधान केवल गीतार्थ साधु और साध्वियों के लिए ही है, अगीतार्थ साधु-साध्वियों के लिये नहीं है तथा अन्य स्थान न मिलने पर ही ऐसे स्थान में ठहरने का विधान है। अगीतार्थ साधु गीतार्थ साधु के नेत्तृत्व में रह सकते हैं, ऐसा समझना चाहिए। सुरायुक्त मकान में रहने का विधि-निषेध व प्रायश्चित्त
४. उवस्सयस्स अंतोवगडाए सुरा-वियड-कुम्भेवा सोवीर-वियड-कुम्भेवा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए।
हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए। नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए।
जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से सन्तरा छए वा परिहारे वा।
४. उपाश्रय के भीतर सुरा और सौवीर से भरे कुम्भ रखे हुए हों तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' भी रहना नहीं कल्पता है।
कदाचित गवेषणा करने पर अन्य उपाश्रय न मिले तो उक्त उपाश्रय में एक या दो रात रहना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है।
जो वहां एक या दो रात से अधिक रहता है, वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
विवेचन-चावल आदि की पीठी से जो मदिरा बनायी जाती है वह 'सुरा' कही जाती है और दाख-खजूर आदि से जो मद्य बनाया जाता है वह 'सौवीर मद्य' कहा जाता है। ये दोनों ही प्रकार के मद्य जिस स्थान पर घड़ों में रखे हुए हों, ऐसे स्थान पर अगीतार्थ साधु-साध्वी को यथालन्दकाल भी नहीं रहना चाहिए। यदि रहता है तो वह लघुचौमासी प्रायश्चित्त का पात्र होता है। क्योंकि ऐसे स्थान में ठहरने पर कभी कोई साधु सुरापान कर सकता है, जिससे अनेक दोष होना सम्भव हैं और वहां ठहरने पर जनसाधारण को शंका भी उत्पन्न हो सकती है।