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________________ दूसरा उद्देशक] [१५९ है। दूसरी स्थिति है-जिस मकान में धान्य व्यवस्थित रखा हुआ है उसमें हेमन्त या ग्रीष्म ऋतु में विचरण करते हुए ठहरा जा सकता है। तीसरी स्थिति है-जिस मकान में धान्य सर्वथा व्यवस्थित रखा हुआ हो वहां चातुर्मास किया जा सकता है। प्रथम सूत्र में प्रयुक्त 'यथालंदकाल' की व्याख्या इस प्रकार है गाहा–तिविहं च अहालंदं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं। ___ उदउल्लं च जहण्णं, पणगं पुण होइ उक्कोसं॥ -बृह. भाष्य ३३०३ यथालन्द नाम कालविशेष का है। वह तीन प्रकार का होता है-१. जघन्य, २. मध्यम, ३. उत्कृष्ट। गीले हाथ की रेखा के सूखने में जितना समय लगता है, उतने समय को जघन्य यथालन्दकाल कहते हैं। पांच दिन-रात को उत्कृष्ट यथालन्दकाल कहते हैं। बृहत्कल्प सूत्र उद्दे. ३ में तथा उववाई सूत्र में इससे २९ दिन ग्रहण किये गये हैं और इन दोनों के मध्यवर्ती काल को मध्य यथालन्दकाल कहते हैं। जिस उपाश्रय में पूर्वोक्त प्रकार से कोई भी धान्य बिखरे हुए पड़े हों वहां पर जघन्य यथालन्दकाल भी रहना नहीं कल्पता है। क्योंकि उनके ऊपर से जाने-आने में सचित्त बीजों की विराधना होती है और धान्यों पर चलते हुए कभी फिसलकर गिरने से आत्म-विराधना भी सम्भव है, अतः साधु-साध्वियों को वहां क्षणभर भी नहीं ठहरना चाहिए। कदाचित् प्रयत्न करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो रजोहरणादि से प्रमार्जन करके यतनापूर्वक वहां पर ठहरा जा सकता है। फिर उसका यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार कर लेना चाहिए। मकान के जिस विभाग में साधु को ठहरना हो या गमनागमन करना हो उसके लिये यहां अंतावगडाए' शब्द का प्रयोग किया गया है। दूसरे सूत्र में निर्दिष्ट शालि, व्रीहि आदि धान्य मकान में बिखरे हुए नहीं हैं, किन्तु उनकी गोलाकार राशि बनी हुई है, लम्बी राशि बनी हुई है, भित्ति के सहारे रखे हुए हैं, कुलिका-मिट्टी से बने गोल या चौकोर पात्र में रखे हुए हैं, एकत्र करके भस्म (राख) आदि से लांछित (चिह्नित) किये हुए हैं, गोबर आदि से मुद्रित (लिम्पित) हैं, बांस के बनी चटाई, टोकरी या थाली वस्त्र आदि से पिहितढंके हुए हैं तो शीत एवं ग्रीष्मकाल में अपने कल्प के अनुसार वैसे मकान में साधु और साध्वियों को ठहरना कल्पता है, किन्तु वर्षाकाल में वैसे मकान में ठहरना नहीं कल्पता है। तीसरे सूत्र में निर्दिष्ट शालि, व्रीहि आदि धान्य मकान की सीमा के भीतर राशि रूप में या भित्ति आदि के सहारे नहीं रखे हैं, किन्तु किसी कोठा या कोठी के भीतर अच्छी तरह से सुरक्षित रखे हुए हैं। यथा पल्यागुप्त-काठ, वंश-दल आदि से निर्मित और गोबर-मिट्टी से लिपे हुए गोलाकार बनाये
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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