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[बृहत्कल्पसूत्र ९. निर्ग्रन्थियों को सपरिक्षेप और सबाहिरिक ग्राम यावत् राजधानी में हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में चार मास तक रहना कल्पता है। दो मास ग्राम आदि के अन्दर और दो मास ग्राम आदि के बाहर। ग्राम आदि के अन्दर रहते हुए अन्दर ही भिक्षाचर्या करना कल्पता है। ग्राम आदि के बाहर रहते हुए बाहर ही भिक्षाचर्या करना कल्पता है।
विवेचन-प्रत्येक जनपद में ग्राम आदि सूत्रोक्त अनेक बस्तियां होती हैं। ये बस्तियां दो प्रकार की होती हैं
१. जिस ग्राम आदि के चारों ओर पाषाण, ईंट, मिट्टी, काष्ठ, बांस या कांटों आदि का तथा खाई, तालाब, नदी, गर्त, पर्वत का प्राकार हो और उस प्राकार के अन्दर ही घर बसे हुए हों, बाहर न हों तो उस ग्राम आदि को 'सपरिक्षेप' और 'अबाहिरिक' कहा जाता है।
२. जिस ग्राम आदि के चारों ओर पूर्वोक्त प्रकार के प्राकारों में से किसी प्रकार का प्राकार हो और उस प्राकार के बाहर भी घर बसे हुए हों, उस ग्राम आदि को 'सपरिक्षेप' ओर 'सबाहिरिक' कहा जाता है।
साधु-साध्वियाँ उक्त दोनों प्रकार की बस्तियों में ठहरते हैं।
वर्षाकाल में उनके लिए सर्वत्र चार मास तक रहने का विधान है किन्तु वर्षाकाल के अतिरिक्त आठ मास तक वे कहाँ कितने ठहरें? इसका विधान उल्लिखित चार सूत्रों में है।
सूत्र में सपरिक्षेप सबाहिरिक ग्रामादि में दुगुने कल्प तक रहने के लिए भिक्षाचर्या सम्बन्धी जो कथन है, उसका तात्पर्य यह है कि भिक्षु ग्रामादि के जिस विभाग में रहे उसी विभाग में गोचरी करे तो उसे प्रत्येक विभाग में अलग-अलग कल्प काल तक रहना कल्पता है। किन्तु एक विभाग में रहते हुए अन्य विभागों में भी गोचरी करे तो उन विभागों में अलग मासंकल्प काल रहना नहीं कल्पता है। सूत्र में प्रयुक्त ग्रामादि शब्दों की व्याख्या
नत्थेत्थ करो नगरं, खेडं पुणं होई धूलिपागारं। कब्बडगं, तु कुनगरं, मडंबगं सव्वता छिन्नं ॥ जलपट्टणं च थलपट्टणंच, इति पट्टणं भवे दुविहं। अयमाइ आगरा खलु, दोषमुहं जल-थलपहेणं॥ निगम नेगमवग्गो, वसइ रायहाणि जहिं राया। तावसमाई आसम, निवेसो सत्थाइजत्ता वा॥ संवाहो संवोढुं, वसति जहिं पव्वयाइविसमेसु। घोसो उ गोउलं, अंसिया उ गामद्धमाईया॥ णाणादिसागयाणं, भिज्जति पुडा उजत्थ भंडाणं। पुडभेयणं तगं संकरो य, केसिंचि कायव्वो॥
-बृह. भाष्य गाथा १०८९-१०९३