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________________ ९६] [ दशाश्रुतस्कन्ध _ 'जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स फलवित्तिविसेसे अत्थि, तं अहमवि आगमेस्साए इमाइं एयारूवाइं उरालाई पुरिसभोगाई भुंजमाणी विहरामि-से तं साहु।' एवंखलु समणाउसो! णिग्गंथी णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स आणालोइयअप्पडिक्कंता जाव' दुल्लहबोहिया यावि भवइ। एवं खलु समणाउसो! तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे, जं नो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए।। हे आयुष्मन् श्रमणो! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् सब दु:खों का अन्त करते हैं। उस केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए कोई निर्ग्रन्थी उपस्थित होकर विचरती हुई यावत् एक पुरुष को देखती है जो कि विशुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाला उग्रवंशी या भोगवंशी है यावत् उसे देखकर निर्ग्रन्थी निदान करती है कि 'स्त्री का जीवन दुःखमय है, क्योंकि किसी अन्य गांव को यावत् अन्य सन्निवेश को अकेली स्त्री नहीं जा सकती है। जिस प्रकार आम, बिजोरा या आम्रातक की फांकें, इक्षु-खण्ड और शाल्मलि की फलियां अनेक मनुष्यों के लिए आस्वादनीय, प्राप्तकरणीय, इच्छनीय और अभिलषणीय होती हैं, इसी प्रकार स्त्री का शरीर भी अनेक मनुष्यों के लिए आस्वादनीय यावत् अभिलषणीय होता है। इसलिए स्त्री का जीवन दुःखमय है और पुरुष का जीवन सुखमय है।' 'यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के उत्तम पुरुष सम्बन्धी कामभोगों को भोगते हुए विचरण करूं तो यह श्रेष्ठ होगा।' इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! वह निर्ग्रन्थनी निदान करके उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना यावत् उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। हे आयुष्मन् श्रमणो! उस निदान का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर सकता है। ५. निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी द्वारा परदेवी-परिचारणा का निदान करना एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणमंतं करेंति।। ___जस्स णं धम्मस्स निग्गंथो वा निग्गंथी वा सिक्खाए उवट्ठिए विहरमाणे जाव से य परक्कममाणे माणुस्सेहिं कामभोगेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा माणुस्सगा खलुकामभोगा अधुवा, अणितिया, असासया, सडणपडणविद्धंसणधम्मा। १-३. प्रथम निदान में देखें
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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