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________________ दसर्वी दशा] [९१ नर्तकों का नृत्य देखता है, गायकों का गीत सुनता है और वाद्यंत्र, तंत्री, तल-ताल, त्रुटित, घन, मृदंग, मादल आदि महान् शब्द करने वाले वाद्यों की मधुर ध्वनियां सुनता है। इस प्रकार वह उत्तम मानुषिक कामभोगों को भोगता हुआ रहता है। ___ उसके द्वारा किसी एक को बुलाये जाने पर चार-पांच सेवक बिना बुलाये ही उपस्थित हो जाते हैं और वे पूछते हैं कि 'हे देवानुप्रिय! कहो हम क्या करें? क्या लावें? क्या अर्पण करें और क्या आचरण करें? आपकी हार्दिक अभिलाषा क्या है? आपके मुख को कौन-से पदार्थ स्वादिष्ट लगते हैं ?' उसे देखकर निर्ग्रन्थ निदान करता है कि 'यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार से उत्तम मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों को भोगते हुए विचरण करूं तो अच्छा होगा।' ___ हे आयुष्मन् श्रमणो! वह निर्ग्रन्थ निदान करके उस निदान सम्बन्धी संकल्पों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोड़कर महान् ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महाबल वाले, महायश वाले, महासुख वाले, महाप्रभा वाले, दूर जाने की शक्ति वाले, लम्बी स्थिति वाले किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होता है। वह वहां महर्धिक देव होता है यावत् देव सम्बन्धी भोगों को भोगता हुए विचरता है यावत् वह आयु, भव और स्थिति के क्षय होने से उस देवलोक से च्यव कर शुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाले उग्रकुल या भोगकुल में से किसी एक कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। वहां वह बालक सुकुमार हाथ-पैर वाला, शरीर तथा पांचों इन्द्रियों से प्रतिपूर्ण, शुभ लक्षणव्यंजन-गुणों से युक्त, चन्द्रमा के समान सौम्य, कांतिप्रिय दर्शन वाला और सुन्दर रूप वाला होता है। बाल्यकाल बीतने पर तथा विज्ञान की वृद्धि होने पर वह बालक यौवन को प्राप्त होता है। उस समय वह स्वयं पैतृक सम्पत्ति को प्राप्त कर लेता है। उनके कहीं जाते समय या आते समय आगे छत्र, झारी आदि लेकर दासी-दास-नौकरचाकर चलते हैं यावत् एक को बुलाने पर उसके सामने चार पांच बिना बुलाये ही आकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि-'हे देवानुप्रिय! कहो हम क्या करें यावत् आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं?' प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्तरूप श्रमण माहण उभय काल केवलिप्ररूपित धर्म कहते हैं? उ०-हां, कहते हैं। प्र०-क्या वह सुनता है? उ०-यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उस धर्मश्रवण के योग्य नहीं है। वह महाइच्छाओं वाला यावत् दक्षिणदिशावर्ती नरक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूप में उत्पन्न होता है तथा भविष्य में उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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