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________________ ७२] [दशाश्रुतस्कन्ध ५. वर्षावास में साधु-साध्वी को तीन मात्रक ग्रहण करना कल्पता है, यथा-१. उच्चार (बड़ी नीत का) मात्रक, २. प्रश्रवणमात्रक, ३. खेल-कफमात्रक। ६. साधु-साध्वी को पर्युषणा के बाद गाय के रोम जितने बाल रखना नहीं कल्पता है। अर्थात् गाय के रोम जितने बाल हों तो भी लोच करना आवश्यक होता है। ७. साधु-साध्वी को चातुर्मास में पूर्वभावित श्रद्धावान् के अतिरिक्त किसी को दीक्षा देना नहीं कल्पता है। ८. चातुर्मास में साधु-साध्वी को समिति गुप्ति की विशेष रूप में सावधानी रखनी चाहिए। ९. साधु-साध्वी को पर्युषणा के बाद किसी भी पूर्व क्लेश (कषाय) को अनुपशान्त रखना नहीं कल्पता है। १०. साधु-साध्वी को वर्ष भर के सभी प्रायश्चित्त तपों को चातुर्मास में वहन कर लेना चाहिए। आगे ६२वीं गाथा में कहा है 'तीर्थंकर और गणधरों की स्थविरावली २४वें तीर्थंकर के शासन में कही जाती है और शेष (६३-६७) ५ गाथाओं में अल्पवर्षा में गोचरी जाने का विधान किया गया है। उपलब्ध पर्युषणा कल्पसूत्र में तो तीर्थंकर, गणधर और स्थविरों के वर्णन पहले हैं और उस के बाद समाचारी का वर्णन है। किन्तु नियुक्ति में समाचारी के प्रायश्चित्तों का विधान करने वाली उपसंहार गाथा के बाद में उसका कथन है अतः उसका कोई महत्त्व नहीं है, अपितु ऐसा कथन अनेक आशंकाओं का जनक है। अर्थात् अपने आग्रह की सिद्धि के लिए यह गाथा रचकर जोड़ दी गई है। __ स्थविरावली के कथन के बाद वर्षा में गोचरी जाने का विधान ५ नियुक्ति गाथाओं में है। वह भी दशवैकालिकसूत्र तथा आचारांगसूत्र से विपरीत विधान है, अतः संदेहास्पद है। अर्थात् उपसंहार के बाद होने से और आगम-विपरीत कथन करने वाली होने से ये पांच गाथाएं भी प्रक्षिप्त ही प्रतीत होती हैं। इस प्रकार नियुक्ति की अंतिम छ: गाथाएं प्रक्षिप्त ज्ञात होती हैं। जब मूल पाठों में इतना परिवर्तन किया जा सकता है तो नियुक्ति में होना क्या आश्चर्य है। उक्त सभी विचारणाओं का तात्पर्य यह है कि पर्युषणाकल्पसूत्र स्वतंत्र संकलित सूत्र है। न कि दशाश्रुतस्कंधसूत्र की आठवीं दशा है। अत:आठवीं दशा का संक्षिप्त पाठ जो समूचे पर्युषणाकल्पसूत्र को समाविष्ट करता हुआ दिखाया जाता है वह अशुद्ध है, अर्थात् कल्पित है। जो नियुक्ति आदि व्याख्याओं से स्पष्ट सिद्ध है। पर्युषणाकल्पसूत्र को आठवीं दशा एवं भद्रबाहुस्वामी रचित तथा भगवद्भाषित मानने में अनेक विरोध एवं विकल्प उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार व्यवच्छिन्न हुई वर्तमान में इस आठवीं दशा के आदि, मध्य और अन्तिम मूल पाठ का सही निर्णय नियुक्ति व्याख्या के आधार से किया जाना भी कठिन है। अतः उपलब्ध संक्षिप्त सूत्र को स्वीकार करने की अपेक्षा तो इस दशा को व्यवच्छिन्न मानकर सन्तोष करना ही श्रेयस्कर है। ॥आठवीं दशा समाप्त॥
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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