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सम्पादकीय
छेद-सूत्र : समीक्षात्मक विवेचन
आगमों की संख्या
स्थानकवासी जैन परंपरा जिन आगमों को वीतराग-वाणी के रूप में मानती है, उनकी संख्या ३२ है। वह इस प्रकार है— ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और एक आवश्यक । श्वेताम्बर मूर्ति - पूजक परंपरा के अनुसार पैंतालीस आगम हैं। अंग, उपांग आदि की संख्या तो समान है, किन्तु प्रकीर्णकों और छेदसूत्रों में निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प व व्यवहारसूत्र के साथ महानिशीथ और पंचकल्प को अधिक माना है।
अंग, उपांग आदि आगमों में धर्म, दर्शन, आचार, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, कला आदि साहित्य सभी अंगों का समावेश है । परन्तु मुख्य रूप से जैन दर्शन और धर्म के सिद्धान्तों और आचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है। अंग, उपांग, मूलवर्ग में प्रायः सैद्धान्तिक विचारों की मुख्यता है । आचारांग, उपासकदशांग और आवश्यक सूत्रों में आचार का विस्तार से वर्णन किया है । छेदसूत्र आचारशुद्धि के नियमोपनियमों के प्ररूपक हैं ।
प्रस्तुत में छेदसूत्रों सम्बंधी कुछ संकेत करते हैं ।
छेदसूत्र नाम क्यों ?
छेद शब्द जैन परम्परा के लिए नवीन नहीं है। चारित्र के पांच भेदों में दूसरे का नाम छेदोपस्थापनाचारित्र है । कान, नाक आदि अवयवों का भेदन तो छेद शब्द का सामान्य अर्थ है, किन्तु धर्म-सम्बन्धी छेद का लक्षण इस प्रकार है
वज्झाणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जए तये णियया । संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति ।
जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो, उसे छेद कहते हैं । अतएव छेदोपस्थापना का लक्षण यह हुआ - पुरानी सावद्य पर्याय को छोड़कर अहिंसा आदि पाँच प्रकार के यमरूप धर्म में आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापनासंयम । अथवा जहाँ हिंसा, चोरी इत्यादि के भेद पूर्वक सावद्य क्रियाओं का त्याग किया जाता है और व्रतभंग हो जाने पर इसकी प्रायश्चित्त आदि से शुद्धि की जाती है, उसको छेदोपस्थापना संयम कहते हैं । यह निरतिचार और सातिचार के भेद से दो प्रकार का है। निरतिचार छेदोपस्थापना में पूर्व के सर्वसावद्यत्याग रूप सामाजिक चारित्र के पृथक्-पृथक् अहिंसा आदि पंच महाव्रत रूप भेद करके साधक को स्थापित किया जाता है। सतिचार छेदोपस्थापनाचारित्र में उपस्थापित (पुनः स्थापित) करने के लिए आलोचना के साथ प्रायश्चित भी आवश्यक है। यह प्रायश्चित्तविधान स्खलनाओं की गंभीरता को देखकर किया जाता है।
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