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________________ परिशिष्ट-१ ] [ १२१ इच्छित है, देवानुप्रिय! मुझे स्वीकृत है, देवानुप्रिय! इच्छित एवं अभिलषित है। वह वैसा ही है, जैसा आपने कहा है। इस प्रकार कहकर उसने स्वप्न के आशय (भाव) को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया। फिर बल राजा से अनुमति लेकर अनेक प्रकार के मणिरत्नों से रचित चित्रामों वाले भद्रासन से उठकर शीघ्रता एवं चपलता रहित गति से चलकर अपने शयनागार में आई और आकर अपनी शैया पर बैठी। शैया पर बैठकर इस प्रकार विचार करने लगी - यह मेरा उत्तम, प्रधान, मंगलरूप स्वप्न अन्य दूसरे पाप-स्वप्नों से प्रतिहत न हो जाए! ऐसा सोचकर देव-गुरुजन संबंधी प्रशस्त मांगलिक कथाओं से जागरण करती रही। ९. तए णं से बले राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एंव वयासी – "खिप्पामेव, भो देवाणुप्पिया! अज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गन्धोदयसित्तसुइअसंमजि-ओवलितं सुगन्धवरपञ्चवण्णपुष्फोवयारकलियं- कालागरुपवरकुंदुरुक्क० जाव गन्धवट्टि-भूयं करेह य करावेह य, करित्ता सीहासणं रहए, रइत्ता ममेयं जाव पच्चप्पिणह। . तए णं ते कोडुम्बिय० जाव पडिसुणेत्ता ख्यिामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं जाव पच्चप्पिणन्ति।' ९. तत्पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक (सेवक) पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनको यह आज्ञा दी - देवानुप्रियो! तुम शीघ्र ही आज बाहर की उपस्थानशाला (सभाभवन) को विशेष रूप से गंधोदक का छिड़काव करके स्वच्छ करो, लीप-पोत कर शुद्ध करो, सुगन्धित और उत्तम पंच वर्ण के पुष्पों से उपचरित करो - सजाओ यावत् काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क, तुरुष्क और धूप को जलाकर गंधवर्तिका के समान करो और करवाओ। फिर सिंहासन रखो और ऐसा करके आज्ञानुरूप कार्य होने की मुझे सूचना दो। इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् आदेश स्वीकार करके शीघ्र ही बाहरी उपस्थानशाला को विशेष रूप से स्वच्छ आदि करके आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना दी। १०. तए णं से बले राया पच्चुसकालसमयंसि सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्ठित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, अट्टणसालं अणुपविसइ, जहा उववाइए, तहेव मजणघरे, जाव ससि व्व पियदंसणे नरवई मजणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयइ, निसीइत्ता अप्पणो उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपच्चत्थुयाई सिद्धत्थगकयमङ्गलोवयाराई रयावइ, रयावित्ता अप्पणो अदूरसामन्ते नाणामणिरयणमण्डियं अहियपेच्छणिजं महग्यवरपट्टणुग्गयं सहपट्टबहुभत्तिसय-चित्तताणं ईहामियउसभ जाव भत्तिचित्तं अब्भिन्तरियं जवणियं अञ्छावेइ, अञ्छावित्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमउयमसूरगोत्थयं सेयवत्थपच्चुत्थयं अङ्गसुहफासुयं सुमउयं पभावईए देवीए भद्दासणं रयावेइ, रयावित्ता कोडुम्बियपुरिसे
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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