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परिशिष्ट - १ ]
४. तदनन्तर इस प्रकार के उदार यावत् सश्रीक महास्वप्न को देख कर जाग्रत हुई वह प्रभावती देवी हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसित हृदय और मेघ की धारा से विकसित कदम्ब पुष्प के समान रोमांचित होती हुई स्वप्न का स्मरण करने लगी और स्वप्न का स्मरण करते हुए शय्या से उठी एवं शीघ्रता, चपलता, संभ्रम और विलंब के बिना राजहंस के समान उत्तम गति से गमन कर बल राजा के शयनगृह में आई । आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम ( मनोहर), उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगल, सुन्दर, मित, मधुर और मंजुल वाणी से बोलते हुए बल राजा को जगाया । जागने पर बल राजा
आज्ञा अनुमति स्वागतपूर्वक विचित्र मणिरत्नों से रचित चित्रामों से युक्त भद्रासन पर बैठी । सुखासन पर बैठने के अनन्तर स्वस्थ एवं शांतमना होकर इष्ट, प्रिय यावत् मधुर वाणी से उसने बल राजा से इस प्रकार निवेदन किया
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५. ' एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्वंसि सालिंगण० तं व जाव नियगवयणमइवयन्तं सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा । तं णं देवाणुप्पिया ! एतस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?'
तणं सेब राया पभावईए देवीए अन्तियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हयहियाए धाराहयनीवसुरभिकुसुमंव चञ्चुमालइयतणुयऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ, ईहं पविसइ, ईहं पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुविणस्स अत्थग्गहणं करेइ, करित्ता पभावई देविं ताहिं इट्ठाहिं कन्ताहिं जाव मङ्गलाहिं मियमहु- रसस्सिरीयाहिं वग्गूहिं संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी
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५. देवानुप्रिय ! बात यह है कि आज मैंने सुख- शय्या पर शयन करते हुए स्वप्न में एक मनोहर सिंह को अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए देखा है । हे देवानुप्रिय ! इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याण रूप फलविशेष होगा ?
तब प्रभावती देवी की इस बात को सुन कर और विचार कर बल राजा हर्षित, संतुष्ट, विकसितहृदय यावत् मेघधारा के स्पर्श होने पर विकसित सुगंधित कदम्ब - पुष्प के समान रोमांचित शरीर वाला हुआ । उसने स्वप्न का अवग्रह ( सामान्य विचार) किया, फिर ईहा (विशेष विचार) की । हा करके अपने स्वाभाविक मतिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का अर्थावग्रह- निश्चय किया और निश्चय करके इष्ट, कांत, यावत् मंगल, मित, मधुर सीक वाणी से संलाप करते हुए इस प्रकार कहा
६. ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे, कल्लाणे णं तुमे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी सुविणे दिट्ठे, आरोग्ग-तुट्ठि- दीहाउ-कल्लाण-मङ्गलकारए णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे, अत्थलाभो देवाप्पिए! भोगलाभो देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए! रज्जलाभी देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! नवहं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्टमाणयराइंदियाणं विइक्कन्ताणं म्हं कुलके कुलनन्दिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवर्द्धणकरं सुकुमालपाणिपायं