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वर्ग ३ : चतुर्थ अध्ययन ]
[ ८१ परिजाणेन्ति, इयाणिं नो आढाएन्ति नो परिजाणन्ति, तं सेयं खलु मे कल्लं (जाव) जलन्ते सुव्वयाणं अजाणं अन्तियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपजिताणं विहरित्तए, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं (जाव) जलन्ते सुव्वयाणं अजाणं अन्तियाओ पडिनिक्खमइ, पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपजित्ताणं विहरइ।
तए णं सा सुभद्दा अजा अजाहिं अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छन्दमई बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया (जाव) अब्भङ्गणं च (जाव) नत्तिपिवासं च पच्चणुभवमाणी विहरइ॥
४३. उन सुव्रता आदि निर्ग्रन्थ श्रमणी आर्याओं द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से हीलना आदि किये जाने और बार बार रोकने - निवारण करने पर उस सुभद्रा आर्या को इस प्रकार का आन्तरिक यावत् मानसिक विचार उत्पन्न हुआ – 'जब मैं अपने घर में थी, तब मैं स्वाधीन थी, लेकिन जब से मैं मुण्डित होकर गृहत्याग कर आनगारिक प्रव्रज्या से प्रव्रजित हुई हूँ, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। पहले जो निर्ग्रन्थ श्रमणियां मेरा आदर करती थीं, मेरे साथ प्रेम-पूर्वक आलाप – संलाप व्यवहार करती थीं, वे आज न तो मेरा आदर करती हैं और न प्रेम से बोलती हैं। इसलिये मुझे कल (आगामी दिन) प्रात:काल यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर इन सुव्रता आर्या से अलग हो कर, पृथक् उपाश्रय में जाकर रहना उचित है।' उसने इस प्रकार का संकल्प किया। इस प्रकार का संकल्प करके दूसरे दिन यावत् सूर्योदय होने पर सुव्रता आर्या को छोड़ कर वह (सुभद्रा आर्या) निकल गई और अलग उपाश्रय में जाकर अकेली ही रहने लगी।
तत्पश्चात् वह सुभद्रा आर्या, आर्याओं द्वारा नहीं रोके जाने से निरंकुश और स्वच्छन्दमति होकर गृहस्थों के बालकों में आसक्त - अनुरक्त होकर यावत् – उनकी तेल-मालिश आदि करती हुई पुत्र-पौत्रादि की लालसापूर्ति का अनुभव करती हुई. समय बिताने लगी। बहुपुत्रिका देवी रूप में उत्पत्ति
४४. तए णं सा सुभद्दा पासत्था पासत्थविहारी ओसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी संसत्ता संसत्तविहारी अहाछन्दा अहाछन्दविहारी बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणई, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं .... तीसं भत्ताई अणसणेणं छे इत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकन्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तियाविमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि देवदूसन्तरिया अंगुलस्स असंखेजभागमेत्ताए ओगाहणाए बहुपुत्तियदेविताए उववन्ना।
तए णं सा बहपुत्तियादेवी अहणोववन्नमत्ता समाणी पञ्चविहाए पज्जतीए " (जाव) भासामणपजत्तीए। एवं खलु गोयमा! बहुपुत्तियाए देवीए सा दिव्वा देविड्डी (जाव) अभिसमन्नागया।
४४. तदनन्तर वह सुभद्रा पासत्था – शिथिलाचारी, पासत्थविहारी, अवसन्न (खंडित व्रत वाली) अवसनविहारी, कुशील (आचारभ्रष्ट) कुशीलविहारी, संसक्त (गृहस्थों से सम्पर्क रखने वाली) संसक्तविहारी और स्वच्छन्द (निरंकुश) तथा स्वच्छन्दविहारी हो गई। उसने बहुत वर्षों तक श्रमणी