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________________ वर्ग ३ : तृतीय अध्ययन ] [ ६९ सोमिल द्वारा पुनः श्रावकधर्मग्रहण २४. तए णं से सोमिले तं देवं एवं वयासी – 'कहं णं देवाणुप्पिया! मम सुप्पव्वइयं ?' तए णं से देवे सोमिलं एवं वयासी -- 'जइ णं तुमं देवाणुप्पिया! इयाणिं पुव्वपडिवन्नाइं पञ्च अणुव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि, तो णं तुझ इयाणिं सुपव्वइयं भवेज्जा।' तए णं से देवे सोमिलं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णं सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पुव्वपडिवन्नाई पञ्च अणुव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। २४. यह सब सुनकर सोमिल ने देव से कहा – 'अब आप ही बताइये कि मैं कैसे सुप्रव्रजित बनूँ - मेरी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या कैसे हो ?' इसके उत्तर में देव ने सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार कहा – 'देवानुप्रिय! यदि तुम पूर्व में ग्रहण किये पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधर्म को सत्यमेव स्वीकार करके विचरण करो तो तुम्हारी यह प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या होगी। इसके बाद देव ने सोमिल ब्राह्मण को वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके जिस ओर से आया था उसी ओर अन्तर्धान हो गया। उस देव के अन्तर्धान हो जाने के पश्चात् सोमिल ब्रह्मार्षि देव के कथनानुसार पूर्व में स्वीकृत पंच अणुव्रतों को अंगीकार करके विचरण करने लगे। सोमिल की शुक्र महाग्रह में उत्पत्ति २५. तएणं से सोमिले बहूहिं चउत्थछट्ठमं(जाव) मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसित्ता तीसं भत्ताइं अणसणाए छेएइ, छेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा सुक्कवडिंसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिजंसि (जाव) ओगाहणाए सुक्कमहग्गहत्ताए उववन्ने। तए णं से सुक्के महग्गहे अहुणोववन्ने समाणे जाव भासामणपज्जत्तीए०। २५. तत्पश्चात् सोमिल ने बहुत से चतुर्थभक्त (उपवास) षष्ठभक्त (बेला), अष्टमभक्त (तेला)यावत् अर्धमासक्षपण, मासक्षपण रूप विचित्र तपःकर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए, संस्कृत करते हुए श्रमणोपासक पर्याय का पालन किया। अंत में अर्धमासिक संलेखना द्वारा आत्मा की अराधना कर और तीस भोजनों का अनशन द्वारा त्याग कर किन्तु पूर्वकृत उस पापस्थान (दुष्प्रव्रज्या रूप कृत प्रमाद) की आलोचना और प्रतिक्रमण न करके सम्यक्त्व की विराधना के कारण कालमास में (मरण के समय) काल (मरण) किया। शुक्रावतंसक विमान की उपपातसभा में स्थित देवशैया पर यावत् अंगुल के असंख्यातवें भाग की
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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