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________________ वर्ग ३ : तृतीय अध्ययन ] [ ६३ एवं पच्चत्थिमेणं वरुणे महाराया (जाव) पच्चत्थिमं दिसिं पसरड़। उत्तेरणं वेसमणे महाराया (जाव) उत्तरं दिसिं पसरइ। पुव्वदिसागमेणं चत्तारि वि दिसाओ भाणियव्वाओ (जाव) आहारं आहारेइ। १७. तत्पश्चात् ऋषि सोमिल ब्राह्मण प्रथम षष्ठक्षपण के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरे। फिर उसने वल्कल वस्त्र पहने और जहाँ अपनी कुटिया थी, वहाँ आये आकर वहाँ से - किढिण बांस की छबड़ी और कावड़ को लिया, तत्पश्चात् पूर्वदिशा का पूजन - प्रक्षालन किया और कहा – हे पूर्व दिशा के लोकपाल सोम महाराज! प्रस्थान (साधनामार्ग) में प्रस्थित (प्रवृत्त) हुए मुझ सोमिल ब्रह्मार्षि की रक्षा करें और यहाँ (पूर्व दिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फूल, बीज और हरी वनस्पतियाँ (हरित) हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें।' यों कहकर सोमिल ब्रह्मार्षि पूर्व दिशा की ओर गया और वहां जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति आदि थों उन्हें ग्रहण किया और कावड़ में रखी , बांस की छबड़ी में भर लिया। फिर दर्भ (डाभ), कुश तथा वृक्ष की शाखाओं को मोड़कर तोड़े हुये पत्ते और समिधाकाष्ठ लिये। लेकर जहाँ अपनी कुटिया थी, वहां आये। कावड़ सहित छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीपकर शुद्ध किया। तदनन्तर डाभ और कलश हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आये आकर गंगा महानदी में अवगाहन किया, और उसके जल से देह शुद्ध की। फिर जलक्रीड़ा की, अपनी देह पर पानी सींचा और आचमन आदि करके स्वच्छ और परम शुचिभूत (पवित्र) होकर देव और पितरों संबंधी कार्य सम्पन्न करके डाभ सहित कलश को हाथ में लिये गंगा महानदी के बाहर निकले फिर जहाँ अपनी कुटिया थी वहाँ आये। कुटिया में आकर डाभ, कुश और बालू से वेदी का निर्माण किया, सर (मथन-काष्ठ) और अरणि तैयार की। फिर मथनकाष्ठ में वे अरणि काष्ठ को घिसा (रगड़ा), अग्नि सुलगाई। अग्नि धौंकी - प्रज्वलित की। तब उसमें समिधा (लकड़ी) डालकर और अधिक प्रज्वलित की और फिर अग्नि की दाहिनी ओर ये सात वस्तुएं (अंग) रखी - (१) सकथ (उपकरण विशेष) (२) वल्कल (३) स्थान (आसन) (४) शैयाभाण्ड (५) कमण्डलु (६) लकड़ी का डंडा और (७) अपना शरीर। फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु तैयार किया तथा नित्य यज्ञ कर्म किया। अतिथिपूजा की (अतिथियों को भोजन कराया) और उसके बाद स्वयं आहार ग्रहण किया। तत्पश्चात् उन सोमिल ब्रह्मार्षि ने दूसरा षष्ठक्षपण (बेला) अंगीकार किया। उस दूसरे बेले के पारणे के दिन भी आतापनाभूमि से नीचे उतरे, वल्कल वस्त्र पहने इत्यादि प्रथम पारणे में जो विधि की, उसी के अनुसार दूसरे पारणे में भी यावत् आहार किया, तक पूर्ववत् जानना चाहिये। इतना विशेष है कि इस बार वे दक्षिण दिशा में गये और कहा – 'हे दक्षिण दिशा के यम महाराज! प्रस्थान-साधना के लिये प्रवृत्त सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें और यहां जो कन्द, मूल आदि हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें।' ऐसा कह कर दक्षिण में गमन किया। तदनन्तर उन सोमिल ऋषि ने तृतीय बेला तप अंगीकार किया। उसके पारणे के दिन भी उन्होंने पूर्वोक्त सब विधि की। किन्तु तब पश्चिम दिशा की पूजा की। कहा – 'हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज! परलोक-साधना में प्रवृत्त मुझ सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें' इत्यादि तथा पश्चिम दिशा का अवलोकन किया और वेदिका आदि बनाई, तथा उसके बाद स्वयं आहार किया, यहाँ तक का कथन पूर्ववत्
SR No.003461
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size4 MB
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