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[ पुष्यिका
बनाते हुए समय यापन करते हैं।
इन तापसों में से मैं दिशाप्रोक्षिक तापसों में दिशाप्रोक्षिकरूप से प्रव्रजित होऊं और प्रव्रजित होने के पश्चात् इस प्रकार का यह अभिग्रह अंगीकार करूंगा – 'यावज्जीवन के लिये निरंतर षष्ठ-षष्ठ भक्त (वेलावेला) पूर्वक दिशा चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्य के अभिमुख भुजाएँ उठा कर आतापना भूमि में आतापना लूँगा।' उसने इस प्रकार का संकल्प किया और संकल्प करके यावत् कल (आगामी दिन) जाज्वल्यमान सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोह कड़ाहों आदि को लेकर यावत् दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित हो गया। प्रव्रजित होने के साथ इस प्रकार का यह (पूर्व में निश्चय किया हुआ) अभिग्रह अंगीकार करके प्रथम षष्ठक्षपण तप अंगीकार करके विचरने लगा। सोमिल की दिशाप्रोक्षिक साधना
१७. तए णं सोमिले माहणे रिसी पढमछट्ठक्खमणपारणंसि आयावणभूमीए पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिण-संकाइयं गेण्हइ, गिण्हित्ता पुरस्थिमं दिसिं पुक्खइ, 'पुरत्थिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं। जाणि य तत्थ कन्दाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुष्पाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाणउ' त्ति कटु पुरत्थिमं दिसं पसरइ, पसरित्ता जाणि य तत्थ कन्दाणि य (जाव) हरियाणि य ताई गेण्हइ, गिण्हित्ता किढिणसंकाइयगं भरेइ, भरित्ता दब्भे य कुसे यपत्तामोडं च समिहाओ कट्ठाणि य गेण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए उडए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ, ठवित्ता वेई वड्ढेइ, वड्डित्ता उवलेवणसंमजणं करेइ, करित्ता दब्भकलसहत्थगए जेणेव गङ्गा महाणई तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता गङ्गमहाणइं ओगाहइ ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करित्ता जलकिड्ड करेइ, करित्ता जलभिसेयं करेइ, करित्ता आयन्ते चोक्खे परमसुइभूए देवपिउकयकजे दब्भकलसहत्थगए गङ्गाओ महाणईओ पच्चुत्तरइं, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भे य कुसे य वालुयाए य वेइं रएइ, रइत्ता सरयं करेइं करित्ता अरणिं करेइ, करित्ता सरएणं अरणिं महेइ, महित्ता अग्गिं पाडेइ, पाडित्ता अग्गिं संधुक्केइ, संधुक्कित्ता समिहा कट्ठाणि पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अग्गिं उज्जालेइ, उज्जालित्ता अग्गिस्स दाहिणे पासे सत्तङ्गाई समादहे।
तं जहा – सकथं वक्कलं ठाणं, सेजभण्डं कमण्डलुं।
दण्डदारुं तहप्पाणं, अह ताई समादहे ॥१॥ महुणा य घएण य तन्दुलेहि य अग्गिं हुणइ। चकै साहेइ, साहित्ता बलिवइस्सदेवं करेइ करेत्ता अतिहिपूयं करेइ करेत्ता, तओ पच्छा अप्पणां आहारं आहारेइ।
तए णं सोमिले माइणरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणपारणगंसि, तं चेव सव्वं भाणियव्वं (जाव) आहारं आहारेइ। नवरं इमं नाणत्तं – 'दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसिं, जाणि य तत्थ कन्दाणि य (जाव) अणुजाणउ' त्ति कटु दाहिणं दिसिं पसरइ।