________________
३४]
[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
हैं । वहाँ बहुत से मनुष्य, स्त्रियाँ आश्रय लेते, शयन करते, खड़े होते, बैठते, त्वग्वर्तन करते-देह को दायेंबायें घुमाते-मोड़ते हँसते, रमण करते, मनोरंजन करते थे।
उस समय भरतक्षेत्र में उद्दाल, कुद्दाल, मुद्दाल, कृत्तमाल, नृत्तमाल, दन्तमाल, नागमाल,शृंगमाल, शंखमाल तथा श्वेतमाल नामक वृक्ष थे, ऐसा कहा गया है। उनकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। वे उत्तम मूल-जड़ों के ऊपरी भाग, कंद-भीतरी भाग, जहाँ से जड़ें फूटती हैं, स्कन्धतने, त्वचा-छाल, शाखा, प्रवाल-अंकुरित होते पत्ते, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज से सम्पन्न थे। वे पत्तों, फूलों और फलों से ढके रहते तथा अतीव कान्ति से सुशोभित थे।
उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत से भेरुताल के वृक्षों के वन, हेरुताल के वृक्षों के वन, मेरुताल वृक्षों के वन, प्रभताल वृक्षों के वन, साल वृक्षों के वन, सरल वृक्षों के वन, सप्तपर्ण वृक्षों के वन, सुपारी के वृक्षों के वन, खजूर के वृक्षों के वन, नारियल के वृक्षों के वन थे। उनकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं।
उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ अनेक सेरिका-गुल्म, नवमालिका-गुल्म, कोरंटक-गुल्म, बन्धुजीवकगुल्म, मनोऽवद्य-गुल्म, बीज-गुल्म, बाण-गुल्म, कर्णिकार-गुल्म, कुब्जक-गुल्म, सिंदुवार-गुल्म, मुद्गरगुल्म, यूथिका-गुल्म, मल्लिका-गुल्म, वासंतिका-गुल्म, वस्तुल-गुल्म, कस्तुल-गुल्म, शैवाल-गुल्म, अगस्तिगुल्म, मगदंतिका-गुल्म, चंपक-गुल्म, जाती-गुल्म, नवनीतिका-गुल्म, कुन्द-गुल्म, महाजाती-गुल्म थे। वे रमणीय, बादलों की घटाओं जैसे गहरे, पंचरंगे फूलों से युक्त थे। वायु से प्रकंपित अपनी शाखाओं के अग्रभाग से गिरे हुए फूलों से वे भरतक्षेत्र के अति समतल, रमणीय भूमिभाग को सुरभित बना देते थे।
भरतक्षेत्र में उस समय जहाँ-तहाँ अनेक पद्मलताएँ, (नागलताएँ, अशोकलताएँ, चंपकलताएँ, आम्रलताएँ, वनलताएँ, वासंतिकलताएँ, अतिमुक्तकलताएँ, कुन्दलताएँ) तथा श्यामलताएँ थीं। वे लताएँ सब ऋतुओं में फूलती थीं, (मंजरियों, पत्तों, फूलों के गुच्छों, गुल्मों तथा पत्तों के गुच्छों से युक्त रहती थीं। वे सदा समश्रेणिक एवं युगल रूप में अवस्थित थीं। वे पुष्प, फल आदि के भार से सदा विनमित-बहुत झुकी हुई, प्रणमित-विशेष रूप से अभिनत-नमी हुई थीं। यों ये विविध प्रकार से अपनी विशेषताएँ लिए हुए अपनी सुन्दर लुम्बियों तथा मंजरियों के रूप में मानो शिरोभूषण-कलंगियाँ धारण किये रहती थीं।
उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत सी वनराजियाँ-वनपंक्तियाँ थीं। वे कृष्ण, कृष्ण आभायुक्त इत्यादि अनेकविध विशेषताओं से विभूषित थीं, मनोहर थीं। पुष्प-पराग के सौरभ से मत्त भ्रमर, कोरंक, भंगारक, कुंडलक, चकोर, नन्दीमुख, कपिल, पिंगलाक्षक, करंडक, चक्रवाक, बतक, हंस आदि अनेक पक्षियों के जोड़े उनमें विचरण करते थे। वे वनराजियाँ पक्षियाँ के मधुर शब्दों से सदा प्रतिध्वनित रहती थीं। उन वनराजियों के प्रदेश कुसुमों का आसव पीने को उत्सुक, मधुर गुंजन करते हुए भ्रमरियों के समूह से परिवृत, दृप्त, मत्त भ्रमरों की मधुर ध्वनि से मुखरित थे। वे वनराजियाँ भीतर की ओर फलों से तथा बाहर की ओर पुष्पों से आच्छन्न थीं। वहाँ के फल स्वादिष्ट होते थे। वहाँ का वातावरण नीरोग था-स्वास्थ्यप्रद था। वे