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________________ २४] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र मणिभद्रकूट, वैताढ्यकूट, पूर्णभद्रकूट, तिमिसगुहाकूट, उत्तरार्धभरतकूट,) वैश्रमणकूट तक-इन सबका वर्णन सिद्धायतन जैसा है। ये क्रमशः पूर्व से पश्चिम की ओर हैं। इनके वर्णन की एक गाथा है वैताढ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट स्वर्णमय हैं, बाकी के सभी पर्वतकूट रत्नमय हैं। मणिभद्रकूट, वैताढ्यकूट एवं पूर्णभद्रकूट- ये तीन कूट स्वर्णमय हैं तथा बाकी के छह कूट रत्नमय हैं। दो पर कृत्यमालक तथा नृत्यमालक नामक दो विसदृश नामों वाले देव रहते हैं। बाकी के छह कूटों पर कूटसदृश नाम के देव रहते हैं। कूटों के जो-जो नाम हैं, उन्हीं नामों के देव वहाँ हैं। उनमें से प्रत्येक पल्योपमस्थितिक है। मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्येय द्वीप समुद्रों को लांघते हुए अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन नीचे जाने पर उनकी राजधानियां हैं। उनका वर्णन विजया राजधानी जैसा समझ लेना चाहिए। २१. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ वेअड्ढे पव्वए वेअड्डे पव्वए ? गोयमा ! वेअड्डे णं पव्वए भरहं वासं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तं जहादाहिणड्डभरहं च उत्तरड्डभरहं च। वेअड्डगिरिकुमारे अइत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-वेअड्ढे पव्वए वेअड्डे पव्वए। अदुत्तरं च णं गोयमा ! वेअङ्कस्स पव्वयस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ ण आसि, ण कयाइ ण अत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे, णिअए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे। [२१] भगवन् ! वैताढ्य पर्वत को 'वैताढ्य पर्वत' क्यों कहते हैं ? गौतम! वैताढ्य पर्वत भरत क्षेत्र को दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत नामक दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है। उस पर वैताढ्यगिरिकुमार नामक परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपमस्थितिक देव निवास करता है। इन कारणों से वह वैताढय पर्वत कहा जाता है गौतम ! इसके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत का नाम शाश्वत है। यह नाम कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, यह कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं और यह भी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह था, यह है, यह होगा, यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है। जम्बूद्वीप में उत्तरार्ध भरत का स्थान : स्वरूप - २२. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्डभरहे णामं वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, वेअड्डस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्डभरहे णामं वासे पण्णत्ते – पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, पलिअंकसंठिए, १. देखें सूत्र संख्या १४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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