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________________ प्रथम वक्षस्कार] भरहस्स णं वासस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं वेअड्डे णामं पव्वए पण्णत्ते, जे णं भरहं वासं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तं जहा-दाहिणड्ढभरहं च उत्तरड्डभरहं च। [१०] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत नामक वर्ष-क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? ____ गौतम ! चुल्लहिमवंत-लघु हिमवंत-पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणवर्ती लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्ववर्ती लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमवर्ती लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीपान्तर्वर्ती भरत क्षेत्र है। इसमें स्थाणुओं की-सूके ढूंठों की, काँटो की-बेर, बबूल आदि काँटेदार वृक्षों की, ऊँची-नीची भूमि की, दुर्गम स्थानों.की, पर्वतों की, प्रपातों की-गिरने के स्थानों की-ऐसे स्थानों की जहाँ से मरणेच्छ व्यक्ति झम्पापापत करते हैं, अवझरों की-जल-प्रपातों की, निर्झरों की, गड्ढों की, गुफाओं की, नदियों की, द्रहों की, वृक्षों की, गुच्छों की, गुल्मों की, लताओं की, विस्तीर्ण बेलों की, वनों की, डमरों की-पर-शत्रुराजकृत उपद्रवों की, दुर्भिक्ष की, दुष्काल की-धान्य आदि की महंगाई की, पाखण्ड की-विविध मतवादी जनों द्वारा उत्थापित मिथ्यावादों की, कृपणों की, याचकों की, ईति की-फसलों को नष्ट करने वाले चूहों, टिड्डियों आदि की, मारी की, मारक रोगों की, कुवृष्टि की-किसानों द्वारा अवाञ्छित-हानिप्रद वर्षा की, अनावृष्टि की, प्रजोत्पीडक राजाओं की, रोगों की, संक्लेशों की, क्षणक्षणवर्ती संक्षोभों की-चैतसिक अनवस्थितता की बहुलता हैअधिकता है-अधिकांशतः ऐसी स्थितियाँ हैं। वह भरतक्षेत्र पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। उत्तर में पर्यक-संस्थान संस्थित है-पलंग के आकार जैसा है, दक्षिण में धनुपृष्ठ-संस्थान-संस्थित है-प्रत्यंचा चढ़ाये धनुष के पिछले भाग जैसा है। यह तीन ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है गंगा महानदी, सिन्धु महानदी तथा वैताढ्यपर्वत से इस भरत क्षेत्र के छह विभाग हो गये हैं, जो छह खंड कहलाते हैं। इस जम्बूद्वीप के १९० भाग करने पर भरतक्षेत्र उसका एक भाग होता है अर्थात् यह जम्बूद्वीप का १९०वाँ हिस्सा है। इस प्रकार यह ५२६६/. योजन चौड़ा है। भरत क्षेत्र के ठीक बीच में वैताढ्य नामक पर्वत बतलाया गया है, जो भरतक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है। वे दो भाग दक्षिणार्थ भरत तथा उत्तरार्ध भरत हैं। जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत का स्थान : स्वरूप . ११. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे भरहे णामं वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! वेअड्डस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुदस्स उत्तरेणं, पुत्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवेदाहिणद्धभरहे णामं वासे पणत्ते-पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिपणे, अद्धचंदसंठाणसंठिए, तिहा लवणसमुदं पुढे, गंगासिंधूहिं महाणईहिं तिभागपरिभत्ते।दोण्णि अद्रुतीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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