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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जंबुद्दीवदीवपुरथिमपेरंते लवणसमुद्दपुरस्थिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीआए महाणईए उप्पिं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेए वरकणगथूभियाए, जावदारस्सवण्णओ जाव रायहाणी। [८] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजय नामक द्वार कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप स्थित मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में ४५ हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप के पूर्व के अन्त में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में सीता महानदी पर जम्बूद्वीप का विजय नामक द्वार कहा गया है। वह आठ योजन ऊँचा तथा चार योजन चौड़ा है। उसका प्रवेशमार्ग भी चौड़ाई जितना ही-चार योजन का है। वह द्वार श्वेत-सफेद वर्ण का है। उसकी स्तूपिका-शिखर, उत्तम स्वर्ण की बनी है। द्वार एवं राजधानी का जीवाभिगमसूत्र में जैसा वर्णन आया है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिये। ९. जंबुद्दीवस्स णं भंते! दीवस्स दारस्स य दारस्स य केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! अउणासीइंजोअणसहस्साइंबावण्णंच जोअणाई देसूणंच अद्धजोअणंदारस्स य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते अउणासीइ सहस्सा बावण्णं चेव जोअणा हंति। ऊणं च अद्धजोअणं दारंतरं जंबुदीवस्स॥ [९] भगवन् ! जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वारा का अबाधित-अव्यवहित अन्तर कितना है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अबाधित-अव्यवहित-अन्तर उनासी हजार बावन योजन तथा कुछ कम आधे योजन का है। जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र का स्थान : स्वरूप १०. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पणपत्ते ? __गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुदस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते-खाणुबहुले, कंटकबहुले, विसमबहुले, दुग्गबहुले, पव्वयबहुले, पवायबहुले, उज्झरबहुले,णिज्झरबहुले,खड्डाबहुले, दरीबहुले, णईबहुले, दहबहुले, रुक्खबहुले, गुच्छबहुले, गुम्मबहुले,लयाबहुले, वल्लीबहुले, अडवीबहुले, सावयबहुले, तणबहुले, तक्करबहुले, डिम्बबहुले, डमरबहुले, दुब्भिक्खबहुले,दुक्कालबहुले, पासंडबहुले, किवणबहुले, वणीमगबहुले, ईतिबहुले, मारिबहुले, कुवुट्ठिबहुले, अणावुट्ठिबहुले, रायबहुले, रोगबहुले, संकिलेसबहुले, अभिक्खणं अभिक्खणं संखोहबहुले। पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिणे, उत्तरओ पलिअंकसंठाणसंठिए, दाहिणओ धणुपिट्ठसंठिए, तिधालवणसमुदं पुढे, गंगासिंधूहि महाणईहिं वेअड्डेणं य पव्वएण छब्भागपविभत्ते, जंबुद्दीवदीवणउयसयभागे पंचछव्वीसे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं।
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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