SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम वक्षस्कार] [३५३ भंते ! देवा किं उद्घोववण्णगा, कप्पोववण्णगा,विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारट्ठिईआ, गहड्आ, गइसमावण्णगा? ___ गोयमा ! अंतोणं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्सजे चंदिमसूरिअ-(गहगणणक्खत्त)-तारारूवे तेणं देवाणो उद्घोववण्णगाणो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारद्विईआ, गहरड्आ, गइसमावण्णगा। ___ उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठाणसंठिएहिं, जोअणसाहस्सिएहि, तावखेत्तेहिं, साहस्सिआहिं वेउव्विआहिं वाहिरहिं परिसाहिं महयाहयणट्टगीयवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइ-अरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं अच्छं पव्वयरायं पयाहिणावत्तमण्डलचारं मेरु अणुपरिअट्टति १४।। [१७३] भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वतवर्ती चन्द्र, सूर्य, ग्रह नक्षत्र एवं तारे-ये ज्योतिष्क देव क्या ऊोपपन्न हैं-सौधर्म आदि बारह कल्पों से ऊपर ग्रैवेयक तथा अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हैं-क्या कल्पातीत हैं ? क्या क्या वे कल्पोपपन्न हैं-ज्योतिष्क देव-सम्बद्ध विमानों में उत्पन्न हैं ? क्या वे चारोपपन्न हैंमण्डल गतिपूर्वक परिभ्रमण से युक्त हैं ? क्या वे चारस्थितिक गत्यभावयुक्त हैं-परिभ्रमण रहित हैं ? क्या वे गतिरतिक हैं-गति में रति-आसक्ति या प्रीति लिये हैं ? क्या गति समापन्न हैं-गतियुक्त हैं ? गौतम ! मानुषोत्तर पवर्तवर्ती चन्द्र, सूर्य, (ग्रह, नक्षत्र) तारे-ज्योतिष्क देव ऊोपपन्न नहीं हैं, कल्पोपपन्न नहीं हैं। वे विमानोत्पन्न हैं, चारोपपन्न हैं, चारस्थितिक नहीं हैं, गतिरतिक हैं, गतिसमापन्न हैं। ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प के आकार में संस्थित सहस्रों योजनपर्यन्त, चन्द्रसूर्यापेक्षया तापक्षेत्र युक्त वैक्रियलब्धियुक्त-नाना प्रकार के विकुर्वितरूप धारण करने में सक्षम, नाट्य, गीत, वादन आदि में निपुणता के कारण आभियोगिक कर्म करने में तत्पर, सहस्रों बाह्य परिषदों से संपरिवृत वे ज्योतिष्क देव नाट्य-गीतवादन रूप त्रिविध संगीतोपक्रम में जोर-जोर से बजाये जाते तन्त्री-तल-ताल-त्रुटित-घन-मृदंग-इन वाद्यों से उत्पन्न मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोग भोगते हुए, उच्च स्वर से सिंहनाद करते हुए, मुँह पर हाथ लगाकर जोर से पूत्कार करते हुए-सीटी की ज्यों, ध्वनि करते हुए, कलकल शब्द करते हुए अच्छ-जाम्बूनद जातीय स्वर्णयुक्त तथा रत्नबहुल होने से अतीव निर्मल, उज्ज्वल मेरु पर्वत की प्रदक्षिणावर्त मण्डल गति द्वारा प्रदक्षिणा करते रहते हैं। विवेचन-मानुषोत्तर पर्वत-मनुष्यों की उत्पत्ति, स्थिति तथा मरण आदि मानुषोत्तर पर्वत से पहलेपहले होते हैं, आगे नहीं होते, इसलिए उसे मानुषोत्तर कहा जाता है। विद्या आदि विशिष्ट शक्ति के अभाव में मनुष्य उसे लांघ नहीं सकते, इसलिए भी वह मानुषोत्तर कहा जात है। प्रदक्षिणावर्त मण्डल सब दिशाओं तथा विदिशाओं में परिभ्रमण करते हुए चन्द्र आदि के जिस मण्डलपरिभ्रमण रूप
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy