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________________ ३१८ ] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र मन्द चिंघाड़ते हैं, कई रथों की ज्यों घनघनाते हैं, कई घोड़ों की ज्यों हिनहिनाहट, हाथियों की ज्यों गुलगुलाहट तथा रथों की ज्यों घनघनाहट-क्रमशः तीनों करते हैं, कई एक आगे से मुख पर चपत लगाते हैं, कई एक पीछे से मुख पर चपत लगाते हैं, कई एक अखाड़े में पहलवान की ज्यों पैंतरे बदलते हैं, कई एक पैर से भूमि का आस्फोटन करते हैं-जमीन पर पैर पटकते हैं। कई इन क्रिया-कलापों को-करतबों को दो-दो के रूप में, तीन-तीन के रूप में मिलाकर प्रदर्शित करते हैं। कई हुंकार करते हैं। कई पूत्कार करते हैं। कई थक्कार करते हैं-थक्-थक् शब्द उच्चारित करते हैं। कई अवपतित होते हैं-नीचे गिरते हैं। कई उत्पतित होते हैं-ऊँचे उछलते हैं। कई परिपतित होते हैं-तिरछे गिरते हैं। कई ज्वलित होते हैं-अपने को ज्वालारूप में प्रदर्शित करते हैं। कई तप्त होते हैं-मन्द अंगारों का रूप धारण करते हैं। कई प्रतप्त होते हैं-दीप्त अंगारों का रूप धारण करते हैं। कई गर्जन करते हैं। कई बिजली की ज्यों चमकते हैं। कई वर्षा के रूप में परिणत होते हैं। कई वातूल की ज्यों चक्कर लगाते हैं। कई अत्यन्त प्रमोदपूर्वक कहकहाहट करते हैं। कई 'दुहुदुहु' करते हैं-उल्लासवश वैसी ध्वनि करते हैं। कई लटकते होठ, मुँह बाये, आँखें फाड़े-ऐसे विकृतभयानक भूत-प्रेतादि जैसे रूप विकुर्वित कर बेतहाशा नाचते हैं। कई चारों ओर कभी धीरे-धीरे, कभी जोरजोर से दौड़ लगाते हैं। जैसा विजयदेव का वर्णन हैं, वैसा ही यहाँ कथन करना चाहिए-समझना चाहिए। अभिषेकोपक्रम १५५. तए णं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामिं तेणं महया महया अभिसेएणं अभिसिंचइ २ त्ता करयलपरिग्गहिअंजाव मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं बद्धावेइ २ त्ता ताहिं इट्टाहिं जाव जयजयसदं पउंजति, पउंजिता जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए, गन्धकासाईए गायाइ लूहेइ २ त्ता एवं(लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिंपइ २ त्ता नासानीसासवायवोझं, चक्खुहरं, वण्णफरिसजुत्तं, हयलालापेलवाइरेगधवलंकणगखचिअंतकम्मंदेवदूसजुअलं निसावेइ २ त्ता) कप्परुक्खगंपिव अंलकियविभूसिअं करेइ २ त्ता (सुमिणदामं पिणद्धावेइ) णट्टविहिं उवदंसेइ २ त्ताअच्छेहिं, सण्हेहिं, रययामएहिंअच्छरसातण्डुलेहिं भगवओसामिस्स पुरओ अटुटुमंगलगे आलिहइ, तं जहा दप्पण १, भद्दासणं २, बद्धमाण ३, वरकलस ४, मच्छ ५, सिरिवच्छा ६। सोत्थिय ७, णन्दावत्ता ८, लिहिआ अट्ठमंगलगा ॥१॥ लिहिऊण करेइ उवयारं, किं ते ? पाडल-मल्लिअ- चंपगऽ-सोग-पुन्नाग-जूअमंजरिणवमालिअ-बउल-तिलय-कणवीर-कुंद-कुज्जग-कोरंट-पत्त-दमणग-वरसुरभि-गन्धगन्धिअस्स, कयग्गहगहिअकरयलपब्भट्ठविप्पमुक्कस्स, दसद्धवण्णस्स, कुसुमणिअरस्स तत्थ चित्तं जण्णुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिकरं करेत्ता चन्दप्पभरयणवइरवेरुलिअविमलदण्डं, कंचणमणि १. देखें सूत्र संख्या ४४ २. देखें सूत्र संख्या ६८ ३. देखें सूत्र संख्या ६८
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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