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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र एवं सहस्रपाक तैन द्वारा अभ्यंग - मालिश करती हैं। फिर सुगन्धित गंधाटक से - गेहूँ आदि के आटे के साथ कतिपय सौगन्धिक पदार्थ मिलाकर तैयार किए गये उबटन से- शरीर पर वह उबटन या पीठी मलकर तैल की चिकनाई दूर करती हैं। वैसा कर वे भगवान् तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा तथा उनकी माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं, जहाँ पूर्वदिशावर्ती कदलीगृह, चतुःशाल भवन तथा सिंहासन थे, वहाँ लाती हैं, वहाँ लाकर भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। सिंहासन पर बिठाकर गन्धोदक—केसर आदि सुगन्धित पदार्थ मिले जल, पुष्पोदक - पुष्प मिले जल तथा शुद्ध जल केवल जलयों तीन प्रकार के जल द्वारा उनको स्नान कराती हैं। स्नान कराकर उन्हें सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित करती हैं। तत्पश्चात् भगवान् तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा और उनकी माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं । उठाकर, जहाँ उत्तरदिशावर्ती कदलीगृह, चतुःशाल भवन एवं सिंहासन था, वहाँ लाती हैं । वहाँ लाकर भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। उन्हें सिंहासन पर बिठाकर अपने आभियोगिक देवों को बुलाती हैं । बुलाकर उन्हें कहती हैं - देवानुप्रियो ! चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत से गोशीर्ष - चन्दनकाष्ठ लाओ।' २९४ ] मध्य रुचक पर निवास करने वाली उन महत्तरा दिक्कुमारिकाओं द्वारा यह आदेश दिये जाने पर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, विनयपूर्वक उनका आदेश स्वीकार करते हैं । वे शीघ्र ही चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से सरस - ताजा गोशीर्ष चन्दन ले आते हैं। तब वे मध्य रुचकनिवासिनी दिक्कुमारिकाएं शरक - शर या बाण जैसा तीक्ष्ण - नुकीला अग्नि- उत्पादक काष्ठविशेष तैयार करती हैं । उसके साथ अरणि काष्ठ को संयोजित करती हैं। दोनों को परस्पर रगड़ती हैं, अग्नि उत्पन्न करती हैं। अग्नि को उद्दीप्त करती हैं । उद्दीप्त कर उसमें गोशीर्ष चन्दन के टुकड़े डालती हैं। उससे अग्नि प्रज्ज्वलित करती | अग्नि को प्रज्ज्वलित कर उसमें समिधा - काष्ठ - हवनोपयोगी ईन्धन डालती हैं, हवन करती हैं, भूतिकर्म करती हैं - जिस प्रयोग द्वारा ईन्धन भस्मरूप में परिणित हो जाए, वैसा करती हैं। वैसा कर वे डाकिनी, शाकिनी आदि से, दृष्टिदोष – से- नजर आदि से रक्षा हेतु भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता के भस्म की पोटलियां बाँधती हैं। फिर नानाविध मणि - रत्नांकित दो पाषाण- गोलक लेकर वे भगवान् तीर्थंकर के कर्णमूल में उन्हें परस्पर ताडित कर 'टिट्टी' जैसी ध्वनि उत्पन्न करती हुई बजाती हैं, जिससे बाललीलावश अन्यत्र आसक्त भगवान् तीर्थंकर उन द्वारा वक्ष्यमाण आशीर्वचन सुनने में दत्तावधान हो सकें। वे आशीर्वाद देती हैं- भगवन् ! आप पर्वत के सदृश दीर्घायु हों । ' फिर मध्य रुचकनिवासिनी वे चार महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा तथा भगवान् की माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं । उठाकर उन्हें भगवान् तीर्थंकर के जन्मभवन में ले आती हैं । भगवान् की मात को वे शय्या पर सुला देती हैं। शय्या पर सुलाकर भगवान् तीर्थंकर को माता की बगल में रख देती हैं - सुला देती हैं । फिर वें मंगल गीतों का आगान, परिगान करती हैं। विवेचन-शतपाक एवं सहस्रपाक तैल आयुर्वेदिक दृष्टि से विशिष्ट लाभप्रद तथा मूल्यवान् तैल
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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