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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
बाँधे, उन्हें मस्तक पर घुमा कर तीर्थंकर की माता से कहती हैं
'रत्नकूक्षिधारिके - अपनी कोख में तीर्थंकर रूप रत्न को धारण करने वाली ! जगत्प्रदीपदायिकेजगद्वर्ति-जनों के सर्व-भाव - प्रकाशक तीर्थंकर रूप दीपक प्रदान करने वाली ! हम आपको नमस्कार करती हैं । समस्त जगत् के लिए मंगलमय, नेत्रस्वरूप - सफल जगत्-भाव-दर्शक, मूर्त - चक्षुर्ग्राह्य, समस्त जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद, सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करने वाली, विभु - सर्वव्यापक – समस्त श्रोतृवन्द के हृदयों में तत्तद्भाषानुपरिणत हो अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि-वाग्वैभव से युक्त, जिन - राग-द्वेष - विजेता, ज्ञानी - सातिशय ज्ञान युक्त, नायक-धर्मवर चक्रवर्ति - उत्तम धर्म चक्र का प्रवर्तन करने वाले, बुद्ध - ज्ञाततत्त्व, , बोधक - दूसरों तत्त्व-बोध देनेवाले, समस्त लोक के नाथ - समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान - बीज का आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, निर्मम - ममता रहित, उत्तम कुल, क्षत्रिय - जाति में उद्भूत, लोकोत्तम - लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थंकर भगवान् की आप जननी हैं। आप धन्य, पुण्य एवं कृतार्थ - कृतकृत्य हैं । देवानुप्रिये ! अधोलोकनिवासिनी हम आठ प्रमुख दिशाकुमारिकाएँ भगवान् तीर्थंकर का जन्ममहोत्सव मनायेंगी अतः आप भयभीत मत होना।
यों कहकर वे उत्तर- -पूर्व दिशाभाग में - ईशानकोण में जाती हैं। वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्म-प्रदेशों को शरीर के बाहर निकालती हैं। आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालकर उन्हें संख्यात योजन तक दण्डाकार परिणत करती हैं। (वज्र - हीरे, वैडूर्य - नीलम, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंजन - एतत्संज्ञक रत्नों के, जातरूप - स्वर्ण के अंक, स्फटिक तथा रिट्ठ रत्नों के पहले बादर-स्थूल पुद्गल छोड़ती हैं, सूक्ष्म पुद्गल ग्रहण करती हैं ।) फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात करती हैं, संवर्तक वायु की विकुर्वणा करती हैं । संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर उस शिव-कल्याणकर, मृदुलभूमि पर धीरे-धीरे बहते, अनुद्भूत - अनूर्ध्वगामी, भूमितल को निर्मल, स्वच्छ करने वाले, मनोहर - मन को रंजित करने वाले, सब ऋतुओं में विकासमान पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित, सुगन्ध को पुञ्जीभूत रूप में दूर तक संप्रसूत करने वाले, तिर्यक् — तिरछे बहते हुए वायु द्वारा भगवान् तीर्थंकर के योजन परिमित परिमण्डल को - भूभाग को — घेरे को चारों ओर से सम्मार्जित करती हैं। जैसे एक तरुण, बलिष्ठ - शक्तिशाली, युगवान्उत्तम युग में सुषम: दुषमादि काल में उत्पन्न, युवा - यौवनयुक्त, अल्पातंक - निरातंक - नीरोग, स्थिराग्रहस्तगृहीत कार्य करने में जिसका अग्रहस्त - हाथ का आगे का भाग काँपता नहीं, सुस्थिर रहता हो, दृढपाणिपाद - सुदृढ़ हाथ-पैरयुक्त, पृष्ठान्तोरुपरिणत - जिसकी पीठ, पार्श्व तथा जंघाएँ आदि अंग परिणत हों - परिनिष्ठित हों, जो अहीनांग हो, जिसके कंधे गठीले, वृत्त - गोल एवं वलित-मुड़े हुए, हृदय की ओर झुके हुए मांसल एवं सुपुष्ट हों, चमड़े के बन्धनों के युक्त मुद्गर आदि उपकरणविशेष या मुष्टिका द्वारा बार-बार कूट कर हुई गाँठ की ज्यों जिनके अंग पक्के हों मजबूत हों, जो छाती के बल से - आन्तरिक बल से युक्त हों, जिसकी दोनों भुजाएँ दो एक जैसे ताड़ वृक्षों की ज्यों हों, अथवा अर्गला की ज्यों हों, जो गर्त आदि लांघने में, कूदने में, तेज चलने में, प्रमर्दन से - कठिन या कड़ी वस्तु को चूर-चूर कर डालने में सक्षम हो, जो छेक - कार्य करने में निष्णात, दक्ष - निपुण - अविलम्ब कार्य करने वाला हो, प्रष्ठ - वाग्मी,
कुशल