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________________ पञ्चम वक्षस्कार ] [ २८५ चतुर्थ आर में उस समय - अर्ध रात्रि की बेला के भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला तथा अनिन्दिता नामक, अधोलोकवास्तव्या - अधोलोक में निवास करने वाली, महत्तरिकागौरवशालिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में अपने उत्तम प्रासादों में अपने चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देव - देवियों से संपरिवृत, नृत्य, गीत, पटुता - कलात्मकतापूर्वक बजाये जाते वीणा, झींझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गंभीर तथा मधुर ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती हैं, तब उनके आसन चलित होते हैं - प्रकम्पित होते हैं। जब वे अधोलोकवासिना आठ दिक्कुमारिकाएँ अपने आसनों को चलित होते देखती हैं, वे अपने अवधिज्ञान का प्रयोग करती हैं । अवधिज्ञान का प्रयोग कर उसके द्वारा भगवान् तीर्थंकर को देखती हैं। देखकर वे परस्पर एक-दूसरे को सम्बोधित कर कहती हैं 1 बूद्वीप में भगवान् तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं । अतीत- पहले हुई, प्रत्युत्पन्न - वर्तमान समय में होने वाली-विद्यमान तथा अनागत- भविष्य में होने वाली, अधोलोकवास्तव्या हम आठ महत्तरिका दिशाकुमारियों का एक परंपरागत आचार है कि हम भगवान् तीर्थंकर का जन्म - महोत्सव मनाएं, अतः हम चलें, भगवान् का जन्मोत्सव आयोजित करें । यों कहकर उनमें से प्रत्येक अपने आभियोगिक देवों को बुलाती हैं, उनसे कहती हैं - देवानुप्रियो ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित सुन्दर यान - विमान की विकुर्वणा करो - वैक्रियलब्धि द्वारा सुन्दर विमान - रचना करो । दिव्य विमान की विकुर्वणा कर हमें सूचित करो । विमान - वर्णन पूर्वानुरूप है । वे आभियोगिक देव सैकड़ों खंभों पर अवस्थित यान- विमानों की रचना करते हैं और उन्हें सूचित करते हैं कि उनके आदेशानुरूप कार्य सम्पन्न हो गया है। यह जानकर वे अधोलोकवास्तव्या गौरवशीला दिक्कुमारियाँ हर्षित एवं परितुष्ट होती हैं। उनमें से प्रत्येक अपने-अपने चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक देवदेवियों के साथ दिव्य यान - विमानों पर आरूढ होती हैं। आरूढ होकर सब प्रकार की ऋद्धि एवं द्युति से समायुक्त, बादल की ज्यों घहराते - गूंजते मृदंग, ढोल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ उत्कृष्ट दिव्य गति द्वारा जहाँ तीर्थंकर का जन्मभवन होता है, वहाँ आती हैं। वहाँ आकर विमानों द्वारा - दिव्य विमानों में अवस्थित वे भगवान् तीर्थंकर के जन्मभवन की तीन बार प्रदक्षिणा करती हैं । वैसा कर उत्तर-पूर्व दिशा में - ईशान कोण में अपने विमानों को, जब वे भूतल से चार अंगुल ऊँचे रह जाते हैं, ठहराती हैं। ठहराकर अपने चार हजार सामानिक देवों ( सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा बहुत से भवनपति एवं वानव्यन्तर देव - देवियों से संपरिवृत वे दिव्य विमानों से नीचे उतरती हैं। नीचे उतरकर सब प्रकार की समृद्धि लिए, जहाँ तीर्थंकर तथा उनकी माता होती हैं, वहाँ आती हैं। वहाँ आकर भगवान् तीर्थंकर की तथा उनकी माता की तीन प्रदक्षिणाएँ करती हैं, वैसा कर हाथ जोड़े, अंजलि
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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