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________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [२७१ [१३५] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर पण्डकवन नामक वन कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! सोमनसवन के बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग से ३६००० योजन ऊपर जाने पर मन्दर पर्वत के शिखर पर पण्डकवन नामक वन बतलाया गया है। चक्रवाल विष्कम्भ दृष्टि से वह ४९४ योजन विस्तीर्ण है, गोल है, वलय के आकार जैसा उसका आकार है। वह मन्दर पर्वत की चूलिका को चारों ओर से परिवेष्टित कर स्थित है। उसकी परिधि कुछ अधिक ३१६२ योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा घिरा है। वह काले, नीले आदि पत्तों से युक्त है। देव-देवियां वहाँ आश्रय लेते हैं। पण्डकवन के बीचों-बीच मन्दर चूलिका नामक चूलिका बतलाई गई है। वह चालीस योजन ऊँची है। वह मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन तथा ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में उसकी परिधि कुछ अधिक ३७ योजन, बीच में कुछ अधिक २५ योजन तथा ऊपर कुछ अधिक १२ योजन है। वह मूल में विस्तीर्ण-चौड़ी, मध्य में संक्षिप्त-सँकड़ी तथा ऊपर तनुक-पतली है। उसका आकार गाय के पूंछ के आकार-सदृश है। वह सर्वथा वैडूर्य रत्नमय है-नीलमनिर्मित है, उज्ज्वल है। वह एक पद्मवरवेदिका (तथा एक वनखण्ड) द्वारा चारों ओर से संपरिवृत है। ऊपर बहुत समतल एवं सुन्दर भूमिभाग है। उसके बीच में सिद्धायतन है। वह एक कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा, कुछ कम एक कोश ऊँचा है, सैकड़ों खम्भों पर टिका है। उस सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन दरवाजे बतलाये गये हैं। वे दरवाजे आठ योजन ऊँचे हैं। वे चार योजन चौड़े हैं। उनके प्रवेश-मार्ग भी उतने ही हैं। उस (सिद्धायतन) के सफेद, उत्तम स्वर्णमय शिखर हैं। आगे वनमालाएँ, भूमिभाग आदि से सम्बद्ध वर्णन पूर्ववत् है। उसके बीचों बीच एक विशाल मणिपीठिका बतलाई गई है। वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी है, चार योजन मोटी है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर देवासन है। वह आठ योजन लम्बाचौड़ा है, कुछ अधिक आठ योजन ऊँचा है। जिन प्रतिमा, देवच्छन्दक, धूपदान आदि का वर्णन पूर्वानुरूप मन्दर पर्वत की चूलिका के पूर्व में पण्डकवन में पचास योजन जाने पर एक विशाल भवन आता है। सौमनसवन के भवन, पुष्करिणियां, प्रासाद आदि के प्रमाण, विस्तार आदि का जैसा वर्णन है, इसके भवन, पुष्करिणियां तथा प्रासाद आदि का वर्णन वैसा ही समझना चाहिए । शक्रेन्द्र एवं ईशानेन्द्र वहाँ के अधिष्ठायक देव हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् है। अभिषेक-शिलाएँ १३६. पण्डगवणे णं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि अभिसे यसिलाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पंडुसिला १, पण्डुकंबलसिला २, रत्तसिला ३, रत्तकम्बलसिलेति ४।
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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