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________________ चतुर्थ वक्षस्कार ] परिवसइत्ति। से णं तत्थ चउण्हं सामाणिआसाहस्सीणं जाव रायहाणी मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे० । [२०३ [९४] भगवन्! हैमवतक्षेत्र में शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्यपर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! रोहिता महानदी के पश्चिम में, रोहितांशा महानदी के पूर्व में, हैमवत क्षेत्र के बीचोंबीच शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्यपर्वत बतलाया गया है। वह एक हजार योजन ऊँचा है, अढाई सौ योजन भूमिगत है, सर्वत्र समतल है। उसकी आकृति पलंग जैसी है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक हजार योजन है । उसकी परिधि कुछ अधिक ३१६२ योजन है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है । वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से संपरिवृत है । पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड का वर्णन पूर्ववत् है । शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत पर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है। उस भूमिभाग के बीचोंबीच एक विशाल, उत्तम प्रासाद बतलाया गया है। वह ६२, योजन ऊँचा है, ३१ योजन १ कोश लम्बा-चौड़ा है । सिंहासन पर्यन्त आगे का वर्णन पूर्ववत् है । भगवन् ! वह शब्दापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत पर छोटी-छोटी चौरस बावड़ियों, (गोलाकार पुष्करिणियों, बड़ी-बड़ी सीधी वापिकाओ, टेढ़ी-तिरछी वापिकाओं, पृथक्-पृथक् सरोवरों, एक दूसरे से संलग्न सरोवरों,) - अनेकविध जलाशयों में बहुत से उत्पल हैं, पद्म हैं, जिनकी प्रभा, ,जिनका वर्ण शब्दापाती के सदृश है। इसके अतिरिक्त परम ऋद्धिशाली, प्रभावशाली, पल्योपम आयुष्ययुक्त शब्दापाती नामक देव वहाँ निवास करता है। उसके चार हजार सामानिक देव हैं। उसकी राजधानी अन्य जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में है । विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है । ( इस कारण यह नाम पड़ा है, अथवा शाश्वत रूप में यह चला आ रहा है | ) हैमवतवर्ष नामकरण का कारण ९५. से केणट्टेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे गोयमा ! चुल्लहिमवन्तमहाहिमवन्तेहिं वासहरपव्वएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दल, णिच्चं हेमं दलइत्ता णिच्चं हेमं पगासइ, हेमवए अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिओ मट्ठिए परिवसइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे । [९५] भगवन् ! वह हैमवतक्षेत्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! वह चुल्ल हिमवान् तथा महाहिमवान् वर्षधर पर्वतों के बीच में है - महाहिमवान् पर्वत दक्षिण दिशा में एवं चुल्लहिमवान् पर्वत से उत्तर दिशा में, उनके अन्तराल में विद्यमान है । वहाँ जो यौगलिक मनुष्य निवास करते हैं, वे बैठने आदि के निमित्त नित्य स्वर्णमय शिलापट्टक आदि का उपयोग करते हैं उन्हें नित्य स्वर्ण देकर वह यह प्रकाशित करता है कि वह स्वर्णमय विशिष्ट वैभवयुक्त है। (यह औपचारिक 1 १. देखें सूत्र संख्या ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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