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वलयाकार में घेरे हुए हैं। इन द्वीपों का विस्तार क्रमशः दुगना-दुगना होता चला गया है। इन सात द्वीपों को सात सागर एकान्तर क्रम से घेरे हुए हैं लवणसागर, इक्षुसागर, सुरासागर, घृतसागर, दधिसागर, क्षीरसागर और जलसागरये इन सात सागरों के क्रमशः नाम हैं। २ बौद्धदृष्टि से जम्बूद्वीप
वैदिक परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में भी जम्बूद्वीप की चर्चा प्राप्त होती है। आचार्य वसुबन्धु ने अभिधर्मकोष में इस पर चर्चा करते हुए लिखा है कि जम्बूद्वीप, पूर्व विदेह, गोदानीय और उत्तर कुरु ये चार महादीप हैं। मेरु पर्वत के दक्षिण की ओर जम्बद्रीप स्थित है। इसका आकार शकट के सदश है। इसके तीन पार्श्व दो हजार योजन के हैं। इस द्वीप में उत्तर की ओर जाकर कीड़े की आकृति के तीन कीटाद्रि पर्वत हैं। उनके उत्तर में पुनः तीन कीटाद्रि हैं। अन्त में हिमपर्वत है। इस पर्वत के उत्तर में अनवतप्त सरोवर है जिससे गंगा, सिन्धु, वक्षु
और सीता ये चार नदियाँ निकलीं। यह सरोवर पचास योजन चौड़ा है। इसके सन्निकट जम्बू वृक्ष है, जिसके नाम से यह जम्बूद्वीप कहलाता है. जम्बूद्वीप के मानवों का प्रमाण ३१/ या ४ हाथ है। उनकी आयु दस वर्ष से लेकर अमित आयु कल्पानुसार घटती या बढ़ती रहती है। ३ जैन दृष्टि से जम्बूद्वीप
प्रस्तुत आगम में जम्बूद्वीप का आकार गोल बताया है और उसके लिए कहा गया है कि तेल में तले हुए पूए जैसा गोल, रथ के पहिये जैसा गोल, कमल की कर्णिका जैसा गोल और प्रतिपूर्ण चन्द्र जैसा गोल है। भगवती', जीवाजीवाभिगम, ५ ज्ञानार्णव, ६ त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, लोकप्रकाश, “आराधना समुच्चय, आदिपुराण ३० में पृथ्वी का आकार झल्लरी (झालर या चूड़ी) के आकार के समान गोल बताया गया है। प्रशमरतिप्रकरण ११ आदि में पृथ्वी का आकार स्थाली के सदृश भी बताया गया है। पृथ्वी की परिधि भी वृत्ताकार है, इसलिए जीवाजीवाभिगम
१. (क) अग्निपुराण १०८।३, २
(ख) विष्णुपुराण २।२।७,६ (ग) गरुडपुराण १।५४।३
(घ) श्रीमद्भागवत ५११।३२-३३ २. (क) गरुडपुराण ११५४।५
(ख) विष्णुपुराण २।२।६
(ग) अग्निपुराण १०८।२ ३. अभिधर्मकोष ३, ४५-८७ ४. भगवतीसूत्र ११ । १०।८ खरकांडे किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! झल्लरीसंठिए पण्णत्ते ।
-जीवाजीवाभिगम सू.३।११७४ मध्ये स्याज्झल्लरीनिभः -ज्ञानार्णव ३३।८ ७. मध्येतो झल्लरीनिभः। -त्रिषष्टिशलाका पु. च. २।३। ४७९ एतावान्मध्यलोकः स्यादाकृत्या झल्लरीनिभः ।
-लोकप्रकाश १२१४५ आराधनासमुच्चय-५८ १०. आदिपुराण-४। ४१ ११. स्थालमिव तिर्यग्लोकम्। -प्रशमरति, २११
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