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________________ १९२] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवन् ! यह द्रह पद्मद्रह किस कारण कहलाता है ? गौतम ! पद्मद्रह में स्थान-स्थान पर बहुत से उत्पल, (कुमुद, नलिन, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र) शतसहस्रपत्र प्रभृति अनेकविध पद्म हैं। पद्म-कमल पद्मद्रह के सदृश आकारयुक्त, वर्णयुक्त एवं आभायुक्त हैं। इस कारण वह पद्मद्रह कहा जाता है। वहाँ परम ऋद्धिशालिनी पल्योपम-स्थितियुक्त श्री नामक देवी निवास करती है। अथवा गौतम ! पद्मद्रह नाम शाश्वत कहां गया है। वह कभी नष्ट नहीं होता। विवेचन-तीनों परिक्षेपों के पद्म १२०००००० हैं। उनके अतिरिक्त श्री देवी के निवास का एक पद्म, श्री देवी के आवास-पद्म के चारों ओर १०८ पद्म, श्री देवी के चार हजार सामानिक देवों के ४००० पद्म, चार महत्तरिकाओं के ४ पद्म, आभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देवों के ८००० पद्म, मध्यम परिषद् के दश हजार देवों के १०००० पद्म, बाह्य परिषद् के बारह हजार देवों के १२००० पद्म, सात सेनापतिदेवों के ७ पद्म तथा सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के १६००० पद्म-कुल पद्मों की संख्या १२०००००० + १ + १०८ + ४००० + ४ + ८००० + १०००० +१२००० + ७ + १६००० = १२०५०१२० एक करोड़ बीस लाख पचास हजार एक सौ बीस हैं। गंगा, सिन्धु, रोहितांशा ९१. तस्सणं पउमद्दहस्स पुरथिमिल्लेणंतोरणेणं गंगा महाणई पवूढा समाणी पुरत्थाभिमुही पञ्च जोअणसयाइं पव्वएणं गंता गंगावत्तकूडे आवत्ता समाणी पञ्च तेवीसे जोअणसए तिण्णिा अएगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलीहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। गंगा महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता। सा णं जिब्भिया अद्धजोअणं आयामेणं, छ सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं,अद्धकोसं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिआ, सव्ववइरामई, अच्छा, सण्हा। गंगा महाणई जत्थ पवडइ, एत्थ णं महं एगे गंगप्पवाए कुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सद्धिं जोअणाई आयामविक्खंभेणं,णउअंजोअणसयं किंचिविसेसाहिअंपरिक्खेवेणं, दस जोअणाई उव्वेहेणं, अच्छे,सण्हे, रययामयकूले,समतीरे, वइरामयपासाणे, वइरतले, सुवण्णसुब्भरययामयवालुआए, वेरुलिअमणिफालिअपडलपच्चोअडे, सुहोआरे, सुहोत्तारे, णाणामणितित्थसुबद्धे, वट्टे,अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीअलजले,संछण्णपत्तभिसमुणाले, बहुउप्पल-कुमुअ-णलिणसुभग-सोगंधिअ-पोंडरीअ-महापोंडरीअ-सयपत्त-सहस्सपत्त-सयसहस्सपत्त-पप्फुल्लकेसरोवचिए, छप्पय-महुयरपरिभुज्जमाणकमले,अच्छ-विमल-पत्थसलिले, पुण्णे, पडिहत्थभवनमच्छ-कच्छभ-अणेगसउणगणमिहुणपविअरियसदुन्नइअमहुरसरणाइए पासाईए।से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसण्डेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। वेइआवणसंडगाणं पउमाणं
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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