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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
उज्ज्वल, निर्मल परिणाम इतनी तीव्रता तक पहुँच गये कि उसके कर्मबन्धन तडातड़ टूटने लगे। परिणामों की पावन धारा तीव्र से तीव्रतर, तीव्रतम होती गई। मात्र अन्तर्मुहूर्त में अपने इस पावन भावचारित्र द्वारा चक्रवर्ती भरत ने वह विराट उपलब्धि स्वायत्त कर ली. जो जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है। घातिकर्म-चतष्टय क्षीण हो गया। राजा भरत का जीवन कैवल्य की दिव्य ज्योति से आलोकित हो उठा।
___ चक्रवर्ती के अत्यन्त भोगमय, वैभवमय जीवन में रचे-पचे भरत में सहसा ऐसा अप्रत्याशित, अकल्पित, अतर्कित परिवर्तन आयेगा, किसी ने सोचा तक नहीं था। इतने स्वल्प काल में भरत परम सत्य को यों प्राप्त कर लेगा, किसी को यह कल्पना तक नहीं थी। किन्तु परम शक्तिमान, परम तेजस्वी आत्मा के उद्बुद्ध होने पर यह सब संभव है, शक्य है। अन्तःपरिणामों की उच्चतम पवित्रता की दशा प्राप्त हो जाने पर अनेकानेक वर्षों में भी नहीं सध सकने वाला साध्य मिनिटों में, घण्टों में सध जाता है। वहाँ गाणितिक नियम लागू नहीं होते।
भरत का जीवन, जीवन की दो पराकाष्ठाओं का प्रतीक है। चक्रवर्ती का जीवन जहाँ भोग की पराकाष्ठा है, वहाँ सहसा प्राप्त सर्वज्ञतामय परम उत्तम मुमुक्षु का जीवन त्याग की पराकाष्ठा है। इस दूसरी पराकाष्ठा के अन्तर्गत मुहूर्त भर में भरत ने जो कर दिखाया, निश्चय ही वह उसके प्रबल पुरुषार्थ का द्योतक है। भरतक्षेत्र : नामाख्यान
८८. भरहे अ इत्थ देवे महिड्डीए महज्जुईए जाव ' पलिओवमट्ठिईए परिवसइ, से एएणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ भरहे वासे भरहे वासे इति।।
अदुत्तरं च णं गोयमा ! भरहस्स वासस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते, जंणं कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे णिअए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे भरहे वासे।
[८८] यहाँ भरतक्षेत्र में महान् ऋद्धिशाली, परम द्युतिशाली, पल्योपमस्थितिक-एक पल्योपम आयुष्य युक्त भरत नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण यह क्षेत्र भरतवर्ष या भरतक्षेत्र कहा जाता है।
गौतम ! एक और बात भी है। भरतवर्ष या भरतक्षेत्र-यह नाम शाश्वत है-सदा से चला आ रहा है। कभी नहीं था, कभी नहीं है, कभी नहीं होगा-यह स्थिति इसके साथ नहीं है। यह था, यह है, यह होगा-यह ऐसी स्थिति लिये हुए है। यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय अवस्थित एवं नित्य
१. देखें सूत्र संख्या १४