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________________ तृतीय वक्षस्कार] [१६३ के नामों के सदृश नामयुक्त देवों की स्थिति एक पल्योपम होती है। उन देवों के आवास अक्रयणीय-न खरीदे जा सकने योग्य होते हैं-मूल्य देकर उन्हें कोई खरीद नहीं सकता, उन पर आधिपत्य प्राप्त नहीं कर सकता। प्रचुर धन-रत्न-संचय युक्त ये नौ निधियां भरतक्षेत्र के छहों खण्डों को विजय करने वाले चक्रवर्ती राजाओं के वंशगत होती हैं। राजा भरत तेले की तपस्या के परिपूर्ण हो जाने पर पौषधशाला से बाहर निकला, स्नानाघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान आदि सम्पन्न कर उसने श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों को बुलाया, नौ निधि-रत्नों को-नौ निधियों को साध लेने के उपलक्ष्य में अष्टदिवसीस महोत्सव आयोजित कराया। अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने अपने सेनापति सुषेण को बुलाया। बुलाकर उससे कहा-देवानुप्रिय ! जाओ, गंगा महानदी के पूर्व में अवस्थित, भरतक्षेत्र के कोणस्थित दूसरे प्रदेश को, जो पश्चिम दिशा में गंगा से, पूर्व एवं दक्षिण दिशा में समुद्रों से और उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत से मर्यादित हैं तथा वहाँ के अवान्तरक्षेत्रीय समविषम कोणस्थ प्रदेशों को अधिकृत करो। अधिकृत कर मुझे अवगत कराओ। सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों पर अधिकार किया उन्हें साधा। यहाँ का सारा वर्णन पूर्ववत् है। सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों को अधिकृत कर राजा भरत को उससे अवगत कराया। राजा भरत ने उसे सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। वह अपने आवास पर आया, सुखोपभोग में अभिरत हुआ। तत्पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर आकाश में प्रतिपन्न-अधर स्थित हुआ। वह एक सहस्र योद्धाओं से संपरिवृत था-घिरा था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि (एवं निनाद) से आकाश को व्याप्त करता था। वह चक्ररत्न सैन्य-शिविर के बीच से चला। उसने दक्षिणपश्चिम दिशा में-नैऋत्य कोण में विनीता राजधानी की ओर प्रयाण किया। . राजा भरत ने चक्ररत्न को देखा। उसे देखकर वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-देवानुप्रियो ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो (घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना को सजाओ)। मेरे आदेशानुरूप यह सब संपादित कर मुझे सूचित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया एवं राजा को उससे अवगत कराया। विनीता-प्रत्यागमन ८३. तए णं से भरहे राया अज्जिअरज्जो णिज्जिअसत्तू उप्पण्णसमत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे णवणिहिवई समिद्धकोसे बत्तीसरायवरसहस्साणुआयमग्गे सट्टीए वरिससहस्सेहिं केवलकप्पं भरहं वासं ओयवेइ, ओअवेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं हयगयरह० तहेव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे।
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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