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तृतीय वक्षस्कार]
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तए णं से भरहे राया णिहिरयणाणं अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावइरयणं सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छं णं भो देवाणुप्पिआ ! गंगामहाणईए पुरथिमिल्लं णिक्खुइंदुच्चंपि सगंगासागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अओअवेहि रत्ता एअमाणत्तिअंपच्चप्पिणाहित्ति।
___तएणं से सुसेणे तंचेवपुव्ववण्णिअंभाणिअव्वंजावओअवित्ता तमाणत्तिअंपच्चप्पिणइ पडिविसज्जेइ जाव भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ।
तए णं से दिव्वे चक्करयणे अन्नया कयाई आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअ-(सद्दसण्णिणादेणं) आपूरेते चेव विजयखंधावारणिवेसं मझमझेणं णिगच्छइ दाहिणपच्चत्थिमं दिसिं रायहाणि अभिमुहे पयाए यावि होत्था।
तए णं से भरहे राया जाव' पासइ २त्ता हट्टतुट्ठ जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिाया! आभिसेकं (हत्थिरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवरजोहकलिअंचाउरंगिणिं सेण्णं सण्णाहेह, एत्तमाणत्तिअंपच्चप्पिणह, तएणं ते कोडुंबियपुरिसे तमाणत्तियं) पच्चप्पिणंति।
[८२] तत्पश्चात्-गुफा से निकलने के बाद राजा भरत ने गंगा महानदी के पश्चिमी तट पर बारह योजन लम्बा, नौ योजनं चौड़ा, श्रेष्ठ-नगर-सदृश-सैन्यशिविर स्थापित किया। ___ आगे का वर्णन मागध देव को साधने के सन्दर्भ में आया वर्णन जैसा है।
फिर राजा ने नौ निधिरत्नों को उत्कृष्ट निधियों को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या स्वीकार की। तेले की तपस्या में अभिरत राजा भरत नौ निधियों का मन में चिन्तन करता हुआ पौषधशाला में अवस्थित रहा। नौ निधियां अपने अधिष्ठातृ-देवों के साथ वहाँ राजा भरत के समक्ष उपस्थित हुईं। वे निधियाँ अपरिमितअनगिनत लाल, नीले, पीले, हरे, सफेद आदि अनेक वर्णों के रत्नों से युक्त थीं, ध्रुव, अक्षय तथा अव्ययअविनाशी थीं, लोकविश्रुत थीं। | वे इस प्रकार थीं
१. नैसर्प निधि, २. पाण्डुक निधि, ३. पिंगलक निधि, ४. सर्वरत्न निधि, ५. महापद्म निधि, ६. काल निधि, ८. माणवक निधि तथा ९. शंखनिधि।
वे निधियाँ अपने-अपने नाम के देवों से अधिष्ठित थीं।
१. नैसर्प निधि-ग्राम, आकर, नगर, पट्टन, द्रोणमुख, मडम्ब, स्कन्धावार, आपण तथा भवन-इनके स्थापन-समुत्पादन की विशेषता लिये होती है।
१. देखें सूत्र संख्या ५० २. देखें सूत्र संख्या ४४