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तृतीय वक्षस्कार]
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णवि से खुहा ण विलिअंणेव भयं णेव विज्जए दुक्खं।
भरहाहिवस्स रणो खंधावारस्सवि तहेव॥१॥ [७६] राजा भरत ने छत्ररत्न को अपनी सेना पर तान दिया। यों छत्ररत्न को तानकर मणिरत्न को स्पर्श किया। (वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दर था, चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था-कोई उसका मूल्य आंक नहीं सकता था। वह तिखूटा था, ऊपर-नीचे षट्कोण युक्त था। अनुपम द्युतियुक्त था, दिव्य था, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट था, वैडूर्य मणि की जाति का था, सब लोगों का मन हरने वाला था-सबको प्रिय था, जिसे मस्तक पर धारण करने से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रह जाता था जो सर्वकष्ट-निवारक था, सर्वकाल आरोग्यप्रद था। उसके प्रभाव से तिर्यञ्च-पशु-पक्षी, देव तथा मनुष्यकृत उपसर्ग-विघ्न कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे। उस उत्तम मणि को धारण करने वाले मनुष्य का संग्राम में किसी भी शस्त्र द्वारा वध किया जाना शक्य नहीं था। उसके प्रभाव से यौवन सदा स्थिर रहता था, बाल एवं नाखून नहीं बढ़ते थे। उसे धारण करने से मनुष्य सब प्रकार के भयों से विमुक्त हो जाता था।) उस मणिरत्न को राजा भरत ने छत्ररत्न के बस्तिभाग में-शलाकाओं के बीच में स्थापित किया। राजा भरत के साथ गाथापतिरत्नसैन्यपरिवार हेतु खाद्य, पेय आदि की समीचीन व्यवस्था, करने वाला उत्तम गृहपति था। वह अपनी अनुपम विशेषता-योग्यता लिये था। शिला की ज्यों अति स्थिर चर्मरत्न पर केवल वपन मात्र द्वारा शालि-कलम संज्ञक उच्चजातीय चावल, जौ, गेहूँ, मूंग, उर्द, तिल, कुलथी, षष्टिक-तण्डुलविशेष, निष्पाव, चने, कोद्रवकोदों, कुस्तुंभरी-धान्यविशेष, कंगु, वरक, रालक-मसूर आदि दालें, धनिया, वरण आदि हरे पत्तों के शाक, अदरक, मूली, हल्दी, लौकी, ककड़ी, तुम्बक, बिजौरा, कटहल, आम, इमली, आदि समग्र फल सब्जी आदि पदार्थों को उत्पन्न करने में वह कुशल था-समर्थ था। सभी लोग उसके इन गुणों से सुपरिचित थे।
उस श्रेष्ठ गाथापति ने उसी दिन उप्त-बोये हुए, निष्पादित-पके हुए, पूत-तुष, भूसा आदि हटाकर साफ किये हुए सब प्रकार के धान्यों के सहस्रों कुंभ राजा भरत को समर्पित किये। राजा भरत उस भीषण वर्षा के समय चर्मरत्न पर आरूढ रहा-स्थित रहा, छत्ररत्न द्वारा आच्छादित रहा, मणिरत्न द्वारा किये गये प्रकाश में सात दिन-रात सुखपूर्वक सुरक्षित रहा।
उस अवधि में राजा भरत को तथा उसकी सेना को न भूख ने पीडित किया, न उन्होंने दैन्य का अनुभव किया और न वे भयभीत और दुःखित ही हुए। आपात किरातों की पराजय
७७. तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि इमेआरूवे अज्झथिए चिंतिए 'पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था-केसणंभो !अपत्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे (हीणपुपणचाउद्दसे हिरिसिरि-) परिवज्जिए जे णं ममं इमाए एआणुरूवाए जाव अभिसमण्णागयाए उप्पिं विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठि-(प्पमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओघमेधं सत्तरत्तं) वासंवासइ।
तए णं तस्स भरहस् रण्णो इमेआरूवं अज्झस्थिअं चिंतियं पत्थिअंमणोगयं संकप्पं