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________________ तृतीय वक्षस्कार] [१३९ अशुचि पदार्थ के संसर्ग की आशंका से अपने आपको कुत्सित स्थानों से दूर रखता है, उसी तरह वह अश्व अपवित्र स्थानों को-ऊबड़-खाबड़, स्थानों को छोड़ता हुआ उत्तम एवं सुगम मार्ग द्वारा चलने की वृत्ति वाला था। वह अपने खुरों की टापों से भूमितल को अभिहत करता हुआ चलता था। अपने आरोहक द्वारा नचाये जाने पर वह अपने आगे के दोनों पैर एक साथ इस प्रकार ऊपर उठाता था, जिससे ऐसा प्रतीत होता, मानो उसके दोनों पैर एक ही साथ उसके मुख से निकल रहे हों। उसकी गति इतनी लाघवयुक्त-स्फूर्तियुक्त थी कि कमलनालयुक्त जल में भी वह चलने में सक्षम था-जैसे जल में चलने वाले अन्य प्राणियों के पैर कमलनालयुक्त जल में उलझ जाते हैं, उसके वैसा नहीं था-वह जल में भी स्थल की ज्यों शीघ्रता से चलने में समर्थ था। वह उन प्रशस्त बारह आवर्गों से युक्त था, जिनसे उसके उत्तम जाति-मातृपक्ष, कुल-पितृपक्ष तथा रूप-आकार-संस्थान का प्रत्यय-विश्वास होता था, परिचय मिलता था। वह अश्वशास्त्रोक्त उत्तम कुल-क्षत्रियाश्व जातीय पितृ-प्रसूत था। वह मेधावी-अपने मालिक के पैरों के संकेत, नाम-विशेष आदि द्वारा आह्वान आदि का आशय समझने की विशिष्ट बुद्धियुक्त था। वह भद्र एवं विनीत था, उसके रोम अति सूक्ष्म, सुकोमल एवं स्निग्ध-चिकने थे, जिनसे वह छविमान था। वह अपनी गति से देवता, मन वायु तथा गरुड़ की गति को जीतने वाला था, वह बहुत चपल और द्रुतगामी था। वह क्षमा में ऋषितुल्य था-वह न किसी को लात मारता था, न किसी को मुँह से काटता था तथा न किसी को अपनी पूँछ से ही चोट लगाता था। वह सुशिष्य की ज्यों प्रत्यक्षतः विनीत था। वह उदक-पानी, हुतवह-अग्नि, पाषाण-पत्थर पांसु-मिट्टी, कर्दम-कीचड़, छोटे-छोटे कंकड़ों से युक्त स्थान, रेतीले स्थान, नदियों के तट, पहाड़ों की तलटियाँ, ऊँचे-नीचे पठार, पर्वतीय गुफाएँ-इन सबको अनायास लांघने में, अपने सवार के संकेत के अनुरूप चलकर इन्हें पार करने में समर्थ था। वह प्रबल योद्धाओं द्वारा युद्ध में पातित-गिराये गये-फेंके गये दण्ड की ज्यों शत्रु की छावनी पर अतर्कित रूप में आक्रमण करने की विशेषता से युक्त था। मार्ग में चलने से होने वाली थकावट के बावजूद उसकी आँखों से कभी आँसू नहीं गिरते थे। उसका तालु कालेपन से रहित था। वह समचित समय पर ही हिनहिनाहट करता था। वह जितनिद्र-निद्रा को जीतने वाला था। मत्र. पुरीष-लीद आदि का उत्सर्ग उचित स्थान खोजकर करता था। वह सर्दी, गर्मी आदि के कष्टों में भी अखिन्न रहता था। उसका मातृपक्ष निर्दोष था। उसका नाक मोगरे के फूल के सदृश शुभ था। उसका वर्ण तोते के पंख के समान सुन्दर था। देह कोमल थी। वह वास्तव में मनोहर था। ऐसे अश्वरत्न पर आरूढ सेनापति सुषेण ने राजा के हाथ से असिरत्न-उत्तम तलवार ली। वह तलवार नीलकमल की तरह श्यामल थी। घुमाये जाने पर चन्द्रमण्डल के सदृश दिखाई देती थी। वह शत्रुओं का विनाश करने वाली थी। उसकी मूठ स्वर्ण तथा रत्न से निर्मित थी। उसमें से नवमालिका के पुष्प जैसी सुगन्ध आती थी। उस पर विविध प्रकार की मणियों से निर्मित बेल आदि के चित्र थे। उसकी धार शाण पर चढ़ी होने के कारण बड़ी चमकीली और तीक्ष्ण भी। लोक में वह अनुपम थी। वह बाँस, वृक्ष, भैंसें आदि के सींग, हाथी आदि के दाँत, लोह, लोहमय भारी दण्ड, उत्कृष्ट वज्र-हीरक जातीय उपकरण आदि का भेदन करने में समर्थ थी। अधिक क्या कहा जाए, वह सर्वत्र अप्रतिहत-प्रतिघात रहित थी-बिना किसी
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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