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[जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र
जुड़े हुए तथा मस्तक से लगाकर उपहार के रूप में सेनापति सुषेण को भेंट की। वापस लौटते हुए उन्होंने पुनः हाथ जोड़े उन्हें मस्तक से लगाया, प्रणत हुए। वे बड़ी नम्रता से बोले-'आप हमारे स्वामी हैं । देवता की ज्यों आपके हम शरणागत हैं, आपके देशवासी हैं।' इस प्रकार विजयसूचक शब्द कहते हुए उन सबको सेनापति सुषेण ने पूर्ववत् यथायोग्य कार्यों में प्रस्थापित किया, नियुक्त किया, उनका सम्मान किया और उन्हें विदा किया। वे अपने-अपने नगरों, पत्तनों आदि स्थानों में लौट आये।
अपने राजा के प्रति विनयशील, अनुपहत-शासन एवं बलयुक्त सेनापति सुषेण ने सभी उपहार, आभरण, भूषण तथा रत्न लेकर सिन्धु नदी को पार किया। वह राजा भरत के पास आया। आकर जिस प्रकार उस देश को जीता, वहा सारा वृत्तान्त राजा को निवेदित किया। निवेदित कर उससे प्राप्त सभी उपहार राजा को अर्पित किये। राजा ने सेनापति का सत्कार किया, सम्मान किया, सहर्ष विदा किया। सेनापति तम्बू में स्थित अपने आवास-स्थान में आया।
तत्पश्चात् सेनापति सुषेण ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। फिर उसने राजसी ठाठ से भोजन किया। भोजन कर विश्रामगृह में आया। (आकर शुद्ध जल से हाथ, मुंह आदि धोये, शुद्धि की। शरीर पर ताजे गोशीर्ष चन्दन का जल छिड़का ऊपर अपने आवास में गया। वहाँ मृदंग बज रहे थे। सुन्दर, तरुण स्त्रियाँ बत्तीस प्रकार के अभिनयों द्वारा नाटक कर रही थीं। सेनापति की पसन्द के अनुरूप नृत्य आदि क्रियाओं द्वारा वे उसके मन को अनुरंजित करती थीं। नाटक में गाये जाते गीतों के अनुरूप वीणा, तबले एवं ढोल बज रहे थे। मृदंगों से बादल कोसी गंभीर ध्वनि निकल रही थी। वाद्य बजाने वाले वादक अपनी-अपनी वादन-कला में बड़े निपुण थे। निपुणता से अपने-अपने वाद्य बजा रहे थे। सेनापति सुषेण इस प्रकार अपनी इच्छा के अनुरूप शब्द, स्पर्श, रस, रूप तथा गन्धमय पांच प्रकार के मानवोचित, प्रिय कामभोगों का आनन्द लेने लगा। तमिस्रा गुफा : दक्षिणद्वारोद्घाटन
६९. तए णं से भरहे राया अण्णया कयाई सुसेणं सेणावई सद्दावेइ २त्ता वयासी-गच्छ णं खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विघाडेहि विघाडेत्ता मम एअमणित्तिअं पच्चप्पिणाहि त्ति।
तए णं से सुसेणे सेणावई भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुटुचित्तमाणंदिए जाव १ करयलपरिग्गहि सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु ( एवं सामिति आणाए विणएणं वयणं) पडिसुणेइ २त्ता भरहस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खिमइ २त्ता जेणेव सए आवासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता दब्भसंथारगं संथरइ (संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ २त्ता) कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव २ अट्ठभत्तंसि १. देखें सूत्र संख्या ४४ २. देखें सूत्र संख्या ५०