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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र (उम्मुक्कमणिसुवणे ववगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले ) दब्भसंथारोवगए अट्टमभत्तिए सिंधुदेवं मणसि करेमाणे चिट्ठइ । तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणम - माणसि सिंधूए देवीए आसणं चलइ । तए णं सा सिंधूदेवी आसणं चलिअं पासइ २त्ता ओहिं पउंजइ २त्ता भरहं रायं ओहिणा आभोएइ २त्ता इमे एआरूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - उप्पण्णे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भर णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी तं जीअमेअं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सिंधूणं भरहाणं राईणं उवत्थाणिअं करेत्तए। तं गच्छामि णं अहंपि भरहस्स रण्णो उवत्थाणिअं करेमित्ति कट्टु कुंभट्टसहस्सं रयणचित्तं णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अ दुबे कणगभद्दासणाणि यँ कडगाणि अ तुडिआणि अ ( वत्थाणि अ) आभरणाणि अ गेण्हइ गेण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव एवं वयासी - अभिजिए णं देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे वासे, अहण्णं देवाणुप्पि आणं विसयवासिणी, अहण्णं देवाणुप्पिआणं आणत्तिकिंकरी ते पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ ! मम इमं एआरूवं पीइदाणंति कट्टु कुंभट्ठसहस्सं रयणचित्तं णाणामणिकणगकडगाणि अ ( तुडिआणि अ वत्थाणि अ आभरणाणि अ) सो चेव गमो (तए णं से भरहे राया सिंधूए देवीए इमेया पीइदाणं पडिच्छइ पडिच्छित्ता सिंधुं देविं सक्कारेइ सम्माणेइ २त्ता ) पडिविसज्जेइ । तए णं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता हाए कयबलिकम्मे (मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ २त्ता ) जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ २त्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं परियादियइ परियादियित्ता ( भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता) सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ णिसीयित्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ सद्दावित्ता जाव ' अट्ठाहिआए महामहिमाए तमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति । ११८ ] [ ६३ ] प्रभास तीर्थकुमार को विजित कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्त्र शस्त्रागार से बाहर निकला। (आकाश में अधर अवस्थित हुआ) । वह एक हजार यक्षों से संपरिवृत था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि से गगन-मंडल को आपूरित करते हुए) उसने सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर प्रयाण किया । राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को जब सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर जाते हुए देखा तो वह मन में बहुत हर्षित हुआ, परितुष्ट हुआ। जहाँ सिन्धु देवी का भवन था, उधर आया । आकर, सिन्धु देवी के भवन के न अधिक दूर, न अधिक समीप, बारह योजन लम्बा, तथा नौ योजन चौड़ा उत्तम नगर जैसा विजय स्कन्धावार - सैन्य शिविर स्थापित किया । (वैसा कर वर्धकिरत्न को – अपने निपुण शिल्पकार को बुलाया। बुलाकर कहा- - देवानुप्रिय ! मेरे लिए आवास - १. देखें सूत्र ३४ २. देखें, सूत्र ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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