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________________ तृतीय वक्षस्कार] [११७ प्रभासतीर्थविजय ६२. तए णं भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं जाव उत्तरपच्चत्थिमं दिसिं तहेव जाव पच्चत्थिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहेइ २त्ता जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पीइदाणं से णवरं मालं मउडिं मुत्ताजालं हेमजालं कडगाणि अतुडिआणि अआभरणाणि असरं च णामाहयंकं पभासतित्थोदगं च गिण्हइ २त्ता जाव पच्चत्थिमेणं पभासतित्थमेराए अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी जाव पच्चत्थिमिल्ले अंतवाले, सेसं तहेव जाव अट्ठाहिआ निव्वत्ता। . [६२] राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए, उत्तर-पश्चिम दिशा होते हुए, पश्चिम में, प्रभास तीर्थ की ओर जाते हुए, अपने रथ के पहिये भीगें, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया। आगे की घटना पूर्वानुसार है। ......वरदाम तीर्थकुमार की तरह प्रभास तीर्थकुमार ने राजा को प्रीतिदान के रूप में भेंट करने हेतु रत्नों की माला, मुकुट, दिव्य मुक्ता-राशि, स्वर्ण-राशि, कटक, त्रुटित, वस्त्र, अन्यान्य आभूषण, राजा भरत के नाम से अंकित बाण तथा प्रभासतीर्थ का जल दिया-राजा को उपहृत किया और कहा कि मैं आप द्वारा विजित देश का वासी हूँ, पश्चिम दिशा का अन्तपाल हूँ। आगे का प्रसंग पूर्ववत् है। पहले की ज्यों राजा की आज्ञा से इस विजय के उपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव हुआ, सम्पन्न हुआ। सिन्धुदेवी-साधन ६३. तए णं से दिव्वे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ रत्ता (अंतलिक्खपडिवण्णेजक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसद्दसण्णिणादेणं) पूरंते चेव अंबरतलं सिंधूए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरच्छिमं दिसिं सिंधूदेवीभवणाभिमुहे पयाते यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधूए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरत्थिमं सिंधूदेवीभवणाभिमुहं पयातं पासइ २त्ता हट्ठतुट्ठचित्त तहेव जाव' जेणेव सिंधूए देवीए भवणं तेणेव उवागच्छइ रत्ता सिंधूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते दुवालसजोअणायामणवजोअणवित्थिपणं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ (करेत्ता वड्डइरयणं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता, एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! ममं आवासं पोसहसालंच करेहि, करेत्ता ममेअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि।तएणं से वड्डइरयणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए पीइमणे जाव अंजलिं कट्ट एवं सामी तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता भरहस्स रण्णो आवसहं पोसहसॉलं च करेइ २त्ता एअमाणत्तिअंखिप्पामेव पच्चप्पिणति। तए णं से भरहे राया चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ रत्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता पोसहसालं अणुपविसङ्क २त्ता पोसहसालं पमज्जइ २त्ता दब्भसंथारगं संथरइ २ त्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ २त्ता) सिंधूदेवीए अट्ठमभत्तं पगिण्हइ रत्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी १. देखें सूत्र संख्या ४४
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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