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द्वितीय वक्षस्कार ]
रात) वर्षा करेगा। इस प्रकार वह भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण – घास, पर्वग – गन्ने आदि, हरित — हरियाली – दूब आदि, औषधि - जड़ी-बूटी, पत्ते तथा कोंपल आदि बादर वानस्पतिक जीवों को— वनस्पतियों को उत्पन्न करेगा।
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उस अमृतमेघ के इस प्रकार सात दिन-रात बरस जाने पर रसमेघ नामक महामेघ प्रकट होगा । वह लम्बाई, (चौड़ाई और विस्तार में भरतक्षेत्र जितना होगा। फिर वह रसमेघ नामक विशाल बादल शीघ्र ही गर्जन करेगा। गर्जन कर शीघ्र ही विद्युतयुक्त होगा । विद्युतयुक्त होकर शीघ्र ही युग, मूसल तथा मुष्टि- परिमित धाराओं से सर्वत्र एक जैसी सात दिन-रात) वर्षा करेगा। इस प्रकार बहुत से वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि, पत्ते तथा कोंपल आदि में तिक्त-तीता, कटुक - कडुआ, कषाय - कसैला, अम्ल - खट्टा तथा मधुर-मीठा, पांच प्रकार के रस उत्पन्न करेगा - रस - संचार करेगा ।
तब भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि, पत्ते तथा कोंपल आदि उगेंगे। उनकी त्वचा - छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प, फल से सब परिपुष्ट होंगे, समुदित - सम्यक्तया उदित या विकसित होंगे, सुखोपभोग्य - सुखपूर्वक सेवन करने योग्य होंगे। सुखद परिवर्तन
४९. तए णं से मणुआ भरहं वासं परूढरुक्ख गुच्छ - गुम्म-लय- वल्लि - तण-पव्वयहरिअ - ओसहीअं, उवचियतय- पत्त - पवाल- पल्लवंकुर - पुप्फ-फल- समुइअं सुहोवभोगं जायं जायं चावि पासिहिंति, पासित्ता, बिलेहिंतो णिद्धाइस्संति, णिद्धाइत्ता हट्टातुट्ठा अण्णमण्णं सद्दाविस्संति, सद्दावित्ता एवं वदिस्संति-जाते णं देवाणुप्पिआ ! भरहे वासे परूढरुक्ख-गुच्छगुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्वय - हरिय - (ओसहीए, उवचिअतय - पत्त - पवाल - पल्लवंकुर - पुप्फफलसमुइए, ) सुहोवभोगे, तं जे णं देवाणुप्पि ! अम्हं केइ अज्जप्पभिइ असुभं कुणिमं आहारं आहारिस्सइ, से णं अणेगाहिं छायाहिं वज्जणिज्जेत्ति कट्टु संठिझं ठवेस्संति, ठवेत्ता भरहे वासे सुहंसुहेणं अभिरममाणा अभिरममाणा विहरिस्संति ।
[४९] तब वे बिलवासी मनुष्य देखेंगे - भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि - ये सब उग आये हैं। छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प तथा फल परिपुष्ट, समुदित एवं सुखोपभोग्य हो गये हैं । ऐसा देखकर वे बिलों से निकल आयेंगे। निकलकर हर्षित एवं प्रसन्न होते हुए एक दूसरे को पुकारेंगे, पुकार कर कहेंगे- देवानुप्रियो ! भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि - ये सब उग आये हैं । (छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प, फल) ये सब परिपुष्ट, समुदित तथा सुखोपभोग्य हैं। इसलिए देवानुप्रियो ! आज से हम में से जो कोई अशुभ, मांसमूलक आहार करेगा, (उसके शरीर-स्पर्श की तो बात ही दूर), उसकी छाया तक वर्जनीय होगी—उसकी छाया तक को नहीं छूएँगे। ऐसा निश्चय कर वे संस्थित- समीचीन व्यवस्था कायम करेंगे । व्यवस्था कायम कर भरतक्षेत्र में सुखपूर्वक, सोल्लास रहेंगे।