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________________ द्वितीय वक्षस्कार] [७९ सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी-काल का दुःषमा नामक पंचम आरक प्रारंभ होता है। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है। भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र का कैसा आकार-स्वरूप होता है ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। वह मुरज के, मृदंग के ऊपरी भाग-चर्मपुट जैसा समतल होता है, विविध प्रकार की पाँच वर्णों की कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों द्वारा उपशोभित होता है। भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र के मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम! उस समय भरतक्षेत्र के मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होते हैं। उनकी ऊँचाई अनेक हाथ-सात हाथ की होती है। वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट कुछ तेतीस वर्ष अधिक सौ वर्ष के आयुष्य का भोग करते हैं। आयुष्य का भोग कर उनमें से कई नरक-गति में, (कई तिर्यञ्च-गति में कई मनुष्य-गति में, कई देव-गति में जाते हैं, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होते हैं)। उस काल के अन्तिम तीसरे भाग में गणधर्म-किसी समुदाय या जाति के वैवाहिक आदि स्वस्व प्रवर्तित व्यवहार, पाखण्ड-धर्म-निर्ग्रन्थ-प्रवचनेतर शाक्य आदि अन्यान्य मत, राजधर्म-निग्रहअनुग्रहादि मूलक राजव्यवस्था, जाततेज-अग्नि तथा चारित्र-धर्म विच्छिन्न हो जाता है। विवेचन-भाषाविज्ञान के अनुसार किसी शब्द का एक समय जो अर्थ होता है, आगे चलकर भिन्न परिस्थितियों में कभी-कभी वह सर्वथा परिवर्तित हो जाता है। यही स्थिति पाषंड या पाखण्ड शब्द के साथ है। आज प्रचलित पाखण्ड या पाखण्डी शब्द के अर्थ में प्राचीन काल में प्रचलित अर्थ से सर्वथा भिन्नता है। भगवान् महावीर के समय में और शताब्दियों तक पाषंडी या पाखण्डी शब्द अन्य मतों के अनुयायियों के लिए प्रयुक्त होता रहा। आज पाखण्ड शब्द निन्दामूलक अर्थ में है। ढोंगी को पाखण्डी कहा जाता है। प्राचीन काल में पाषंड या पाखण्ड के साथ निन्दात्मकता नहीं जुड़ी थी। अशोक के शिलालेखों में भी अनेक स्थानों पर यह आया है। अवसर्पिणी : दुःषमा-दुःषमा ४६. तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं, गंधपज्जवेहिं, रसपजवेहि, फासपज्जवेहिं जाव' परिहायमाणे २ एत्थणं दूसमदूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! तीसे णं भंते ! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ? गोयमा! काले भविस्सइ हाहाभूए,भंभाभूए, कोलाहलभूए, समाणुभावेण यखरफरुस १. देखें सूत्र संख्या २८
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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