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________________ ५४] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र कोडा-कोडी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी काल का सुषमा नामक द्वितीय आरक प्रारम्भ हो जाता है। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय, अनन्त गंध-पर्याय, अनन्त रस-पर्याय, अनन्त स्पर्श-पर्याय, अनन्त संहनन-पर्याय, अनन्त संस्थान-पर्याय, अनन्त-उच्चत्व पर्याय, अनन्त आयु-पर्याय, अनन्त गुरु-लघु-पर्याय, अनन्त अगुरु-लघु-पर्याय, अनन्त उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम-पर्याय-इनका अनन्तगुण परिहानि-क्रम से ह्रास हो जाता है। भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत इस अवसर्पिणी के सुषमा नामक आरक में उत्कृष्टता की पराकाष्ठाप्राप्त समय में भरतक्षेत्र का कैसा आकार स्वरूप होता है ? गौतम! उसका भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल होता है। सुषम-सुषमा के वर्णन में जो कथन किया गया है, वैसा ही यहाँ जानना चाहिए। उससे इतना अन्तर है-उस काल के मनुष्य चार हजार धनुष की अवगाहना वाले होते हैं। उनके शरीर की ऊँचाई दो कोस होती है। इनकी पसलियों की हड्डियाँ एक सौ अट्ठाईस होती हैं। दो दिन बीतने पर इन्हें भोजन की इच्छा होती है। वे अपने यौगलिक बच्चों की चौसठ दिन तक सार-सम्हाल करते हैं-पालन-पोषण करते हैं, सुरक्षा करते हैं। उनकी आयु दो पल्योपम की होती है। शेष सब उसी प्रकार है, जैसा पहले वर्णन आया है। उस समय चार प्रकार के मनुष्य होते हैं-१. एक-प्रवरश्रेष्ठ, २. प्रचुरजंघ-पुष्ट जंघा वाले, ३. कुसुमपुष्प के सदृश सुकुमार, ४. सुशमन-अत्यन्त शान्त। अवसर्पिणी : सुषमा-दुःषमा ३४. तीसे णं समाए तिहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहि, (अणंतेहिं गंधपज्जवेहिं, अणंतेहिं रसपज्जवेहिं, अणंतेहिं फासपज्जवेहिं, अणंतेहिं संघयणपज्जवेहिं, अणंतेहिं संठाणपज्जवेहिं, अणंतेहिं उट्ठाणकम्मबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमपज्जवेहिं,) अणंतगुण-परिहाणीए परिहायमाणे, एत्थ णं सुसमदुस्समाणामं समा पडिवज्जिंसु।समणाउसो! साणं समा तिहा विभज्जइ तंजहा-पढमे तिभाए १, मज्झिमे तिभाए २, पच्छिमे तिभाए । ___जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे, इमीसे ओसप्पिणीए सुसमदुस्समाए समाए पढममज्झिमेसु तिभाएसु भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे ? पुच्छा। गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, सोचेव गमोणेअव्वो णाणत्तं दो धणुसहस्साइं उहूं उच्चत्तेणं। तेसिंच मणुआणं चउसटिपिट्टकरंडगा, चउत्थभत्तस्स आहारत्थे समुप्पज्जइ, ठिई पलिओवमं, एगूणासीइं राइंदिआई सारक्खंति, संगोवेंति, (कासित्ता, छीइत्ता, जंभाइत्ता, अक्किट्ठा, अव्वहिआ, अपरिआविआ कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववज्जति) देवलोगपरिग्गहिआ णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था ?
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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