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________________ ४२] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पुरुषों से कुछ कम होती थी। स्वभावतः उनका वेष शृंगारानुरूप सुन्दर था। संगत-समुचित गति, हास्य, बोली, स्थिति, चेष्टा, विलास तथा संलाप में वे निपुण एवं उपयुक्त व्यवहार में कुशल थीं। उनके स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर तथा नेत्र सुन्दर होते थे। वे लावण्ययुक्त होती थीं। वर्ण, रूप, यौवन, विलास-नारीजनोचित नयन-चेष्टाक्रम से उल्लसित थीं। वे नन्दनवन में विचरणशील अप्सराओं जैसी मानो मानुषी अप्सराएँ थीं। उन्हें देखकर उनकी सौंदर्य, शोभा आदि देखकर प्रेक्षकों को आश्चर्य होता था। इस प्रकार वे मन:प्रसादकरचित्त को प्रसन्न करने वाली तथा प्रतिरूप-मन में बस जाने वाली थीं। भरतक्षेत्र के मनुष्य ओघस्वर-प्रवाहशील स्वर युक्त, हंस की ज्यों मधुर स्वर युक्त, क्रौंच पक्षी की ज्यों दूरदेशव्यापी-बहुत दूर तक पहुँचने वाले स्वर से युक्त तथा नन्दी-द्वादशविध-तूर्यसमवाय-बारह प्रकार के तूर्य-वाद्यविशेषों के सम्मिलित नाद सदृश स्वर युक्त थे। उनका स्वर एवं घोष-अनुदान-दहाड़ या गर्जना सिंह जैसी जोशीली थी। उनके स्वर तथा घोष में निराली शोभा थी। उनकी देह में अंग-अंग प्रभा से उद्योतित थे। वे वज्रऋषभनाराचसंहनन-सर्वोत्कृष्ट अस्थिबन्द तथा समचौरस संस्थान-सर्वोत्कृष्ट दैहिक आकृति वाले थे। उनकी चमड़ी में किसी प्रकार का आतंक-रोग या विकार नहीं था। वे देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग-गतिशीलता संयुक्त, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय से युक्त एवं कबूतर की तरह प्रबल पाचनशक्ति वाले थे। उनके आपान-स्थान पक्षी की ज्यों निर्लेप ते। उनके पृष्ठभाग-पार्श्वभागपसवाड़े तथा ऊरु सुदृढ़ थे। वे छह हजार धनुष ऊँचे होते थे। आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उन मनुष्यों के पसलियों की दो सौ छप्पन हड्डियां होती थीं। उनके सांस पद्म एवं उत्पल की-सी अथवा पद्म तथा कुष्ठ नामक गन्ध-द्रव्यों की-सी सुगन्ध लिए होते थे, जिससे उनके मुंह सदा सुवासित रहते थे। वे मनुष्य शान्त प्रकृति के थे। उनके जीवन में क्रोध, मान, माया और लोभ की मात्रा प्रतनु-मन्द या हलकी थी। उनका व्यवहार मृदु-मनोज्ञ-परिणाम-सुखावह होता था। वे आलीन-गुरुजन के अनुशासन में रहने वाले अथवा सब क्रियाओं में लीन-गुप्त-समुचित चेष्टारत थे। वे भद्र-कल्याणभाक्, विनीत-बड़ों के प्रति विनयशील, अल्पेच्छ-अल्प आकांक्षायुक्त, अपने पास (पर्युषित खाद्य आदि का) संग्रह नहीं रखने वाले, भवनों की आकृति के वृक्षों के भीतर वसने वाले और इच्छानुसार काम-शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शमय भोग भोगने वाले थे। मनुष्यों का आहार २९. तेसि णं भंते ! मणुआणं केवइकालस्स आहारढे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! अट्ठमभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ, पुढवीपुष्फफलाहाराणं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो! तीसे णं भंते ! पुढवीए केरिसए आसाए पण्णत्ते ? __ गोयमा !से जहाणामए गुलेइ वा, खंडेइ वा, सक्कराइवा,मच्छंडिआइ वा, पप्पडमोअएइ वा, भिसेइ वा, पुप्फुत्तराइ वा, पउमुत्तराइ वा, विजयाइ वा, महाविजयाइ वा, आकासिआइ
SR No.003460
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Geography, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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