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सकती है या नहीं? इसके लिए सिद्ध प्राभृत का संकेत किया है जबकि आचार्य मलयगिरि ने स्त्री मुक्त होती है या नहीं ? इस सम्बन्ध में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष की रचना का विस्तार से विश्लेषण किया है।२४३
इसी प्रकार सिद्ध के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों के मन्तव्य की चर्चा करके अन्त में जैनदर्शन की दृष्टि से सिद्ध के स्वरूप की संस्थापना की है।२४४ सामान्य रूप से आचार्य मलयगिरि ने व्याख्या के सम्बन्ध में विभिन्न चिन्तकों के मतभेद का सूचन किया है पर कुछ स्थलों पर उन्होंने अपना स्वतन्त्र मत भी प्रकट किया है और जहाँ उन्हें लगा कि यह उलझन भरा है वहाँ उन्होंने अपना मत न देकर केवलिगम्य कहकर सन्तोष किया है। यह कथन उनकी भवभीरुता का द्योतक है। आज जिन विषयों में कुछ भी नहीं जानते उस विषय में भी जो लोग अधिकार के साथ अपना मत दे देते हैं, उन्हें इस महान आचार्य से प्रेरणा लेनी चाहिए।
आचार्य मलयगिरि ने कितने ही विषयों की चर्चा तर्क और श्रद्धा दोनों ही दृष्टि से की है। जैसेप्रज्ञापना की रचना श्यामाचार्य ने की तथापि इसमें श्रमण भगवान् महावीर और गणधर गौतम का संवाद कैसे? भगवान् महावीर और गौतम का संवाद होने पर भी इसमें अनेक मतभेदों का उल्लेख कैसे ? सिद्ध के पन्द्रह भेदों की व्याख्या के साथ उनकी समीक्षा भी की है। स्त्रियाँ मोक्ष पा सकती हैं, वे षडावश्यक, कालिक और उत्कालिक सूत्रों का अध्ययन कर सकती हैं, निगोद की चर्चा, म्लेच्छ की व्याख्या, असंख्यात आकाश प्रदेशों में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध का समावेश किस प्रकार होता है ? भाषा के पुद्गलों के ग्रहण और निसर्ग की चर्चा, अनन्त जीव होने पर भी शरीर असंख्यात कैसे ? आदि विविध विषयों पर कलम चलाकर आचार्य ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का ज्वलन्त परिचय दिया है। अनेक विषयों की संगति बिठाने हेतु आचार्य ने नयदृष्टि का अवलम्बन लेकर व्याख्या की है और स्थलों पर पूर्वाचार्यों का और पूर्व संप्रदायों की मान्यताओं का उल्लेख किया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान १६००० श्लोक प्रमाण है।
आचार्य मलयगिरि की व्याख्या के पश्चात् अन्य कुछ आचार्यों ने भी व्याख्याएं लिखी हैं, पर वे व्याख्याएं पूर्ण आगम पर नहीं हैं और न इतनी विस्तृत ही हैं। मुनि चन्द्रसूरि ने प्रज्ञापना के वनस्पति के विषय को लेकर वनस्पतिसप्ततिका ग्रन्थ लिखा है जिसमें ७१ गाथाएं हैं। इस पर एक अज्ञात लेखक की एक अवचूरि भी है। यह अप्रकाशित है और इसकी प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर ग्रन्थगार में है।
प्रज्ञापनाबीजक—यह हर्षकुलगणी की रचना है, ऐसा विज्ञों का मत है। क्योंकि ग्रन्थ के प्रारम्भ में और अन्त में कहीं पर भी कोई सूचना नहीं है। इसमें प्रज्ञापना के छत्तीस पदों की विषयसूची संस्कृत भाषा में दी गई है। यह प्रति भी अप्रकाशित है और लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर ग्रन्थागार के संग्रह में है।
पद्मसुन्दरकृत अवचूरि—यह भी एक अप्रकाशित रचना है, जिसका संकेत आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है। इसकी प्रति भी उपर्युक्त ग्रन्थागार में उपलब्ध है।
धनविमलकृत बालावबोध भी अप्रकाशित रचना है। सर्वप्रथम भाषानुवाद इसमें हुआ है जिसे टबा कहते हैं । इस टबे की रचना संवत् १७६७ से पहले की है। श्री जीवविजयकृत दूसरा टबा यानी बालावबोध
२४३. पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना भाग २, पृ. १५४-१५७ २४४. देखिए-पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना, २, १५७
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