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प्रज्ञापना पर विस्तृत व्याख्या मलयगिरि की है। आचार्य मलयगिरि सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं। उनकी टीकाओं में विषय की विशदता, भाषा की प्रांजलता, शैली की प्रौढ़ता एक साथ देखी जा सकती है। कहा जाता है कि उन्होंने छब्बीस ग्रन्थों पर वृत्तियाँ लिखी हैं, उनमें से बीस ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। मलयगिरि ने स्वतन्त्र ग्रन्थ न लिखकर टीकाएँ ही लिखी हैं पर उनकी टीकाओं में प्रकाण्ड पाण्डित्य मुखरित हुआ है। वे सर्वप्रथम मूल सूत्र के शब्दार्थ की व्याख्या करते हैं, अर्थ का स्पष्ट निर्देश करते हैं, उसके पश्चात् विस्तृत विवेचन करते हैं। विषय से सम्बन्धित प्रासंगिक विषयों को भी छूते चले जाते हैं। विषय को प्रामाणिक बनाने के लिए प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण भी देते हैं। प्रज्ञापनावृत्ति उनकी महत्त्वपूर्ण वृत्ति है। यह वृत्ति आचार्य हरिभद्र की प्रदेशव्याख्या से चार गुणी अधिक विस्तृत है। प्रज्ञापना के गुरु गम्भीर रहस्यों को समझने के लिए यह वृत्ति अन्यन्त उपयोगी है। वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्य ने मंगलसूचक चार श्लोक दिए हैं। प्रथम श्लोक में भगवान् महावीर की स्तुति है, द्वितीय में जिन प्रवचन को नमस्कार किया गया है, तृतीय श्लोक में गुरु को नमन किया गया है और चतुर्थ श्लोक में प्रज्ञापना पर वृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है।२४१
आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना का शब्दार्थ करते हुए लिखा है कि 'प्रकर्षेण ज्ञाप्यन्ते अनेयति प्रज्ञापना' अर्थात् जिसके द्वारा जीव-अजीव आदि पदार्थों का ज्ञान किया जाय वह प्रज्ञापना है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्ति में प्रज्ञापना को उपांग के रूप में उल्लिखित किया है पर आचार्य मलयगिरि ने उनसे आगे बढ़कर समवायाङ्ग का उपांग प्रज्ञापना को बताया है। उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि समवायाङ्ग निरूपित अर्थ का प्रतिपादन प्रज्ञापना में हुआ है। उन्होंने यह भी लिखा है कि कहा जा सकता है कि समवायाङ्ग निरूपित अर्थ का प्रज्ञापना में प्रतिपादन करना उचित नहीं, पर यह कथन उपयुक्त नहीं, क्योंकि प्रज्ञापना में समवायाङ्ग प्रतिपादित अर्थ का ही विस्तार है और यह विस्तार मंदमति शिष्य के विशेष उपकार के लिए किया गया है। इसलिए इसकी रचना पूर्ण सार्थक है। विज्ञों का यह मानना है कि अमुक अंग का अमुक उपांग है, इस प्रकार की व्यवस्था आचार्य हरिभद्र के पश्चात् और आचार्य मलयगिरि के पूर्व हुई है।
मलयगिरि की वृत्ति का मूलाधार आचार्य हरभिद्र की प्रदेशव्याख्या रही है तथापि आचार्य मलयगिरि ने अन्य अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है।२४२ उदाहरण के रूप में आचार्य हरिभद्र ने स्त्री तीर्थंकर बन २४१. जयति नमदमरमुकुटप्रतिबिम्बच्छद्मविहित बहुरूपः।
उद्धर्तुमिव समस्तं विश्वं भवपङ्कतोवीरः॥ १॥ जिनवचनामृतजलधिं वन्दे यबिन्दुमात्रमादाय। अभवन्नूनं सत्त्वा जन्म-जरा-व्याधिपरिहीनाः॥ २॥ प्रणमत गुरुपदपङ्कजमधरीकृतकामधेनुकल्पलतम्। यदुपास्तिवशन्निरुपममश्नुवते ब्रह्म तनुभाजः॥३॥ जडमतिरपि गुरुचरणोपास्तिसमुद्भूतविपुलमतिविभवः।
समयानुसारतोऽहं विदधे प्रज्ञापनाविवृत्तिम्॥४॥ -प्रज्ञापना टीका २४२. (क) पाणिनिः स्वप्राकृतव्याकरणे—पत्र ५, पत्रा ३६५
(ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा-पत्र १२। जीवाभिगमचूर्णि प. ३०८ आदि।
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