SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उद्घाटित करने के लिए मूर्धन्य मनीषियों के द्वारा व्याख्यासाहित्य का निर्माण किया गया है। प्रज्ञापना पर निरुक्ति और भाष्य नहीं लिखे गए। किन्तु आचार्य हरिभद्र ने प्रज्ञापना की प्रदेश-व्याख्या में प्रज्ञापना की अवचूर्णि का उल्लेख किया है।२३६ इससे यह स्पष्ट है आचार्य हरिभद्र के पूर्व इस पर कोई न कोई अवचूर्णि अवश्य रही होगी, क्योंकि व्याख्या में यत्र-तत्र 'एतदुक्तं भवति', 'किमुक्तं भवति' 'अयमत्र भावार्थः', 'इदमत्र हृदयम्', 'एतिसिं भावणा' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। आचार्य मलयगिरि २३७ ने भी अपनी वृत्ति में चूर्णि का उल्लेख किया है। यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि अवचूर्णि या चूर्णि का रचयिता कौन था? मुनिश्री पुण्यविजय जी महाराज का अभिमत है कि चूर्णि के रचयिता आचार्य हरिभद्र के गुरु ही होने चाहिए, क्योंकि व्याख्या में ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं—एवं तावत् पूज्यपादा व्याचक्षते', 'गुरवस्तु', 'इह तु पूज्याः', 'अत्र गुरवो व्याचक्षते।' पुण्यविजय जी महाराज का भी यह मन्तव्य है कि प्रज्ञापना पर आचार्य हरिभद्र के गुरु जिनभद्र के अतिरिक्त अन्य आचार्यों की व्याख्याएँ भी होनी चाहिए।२३८ पर उपलब्ध नहीं होने से इसका क्या रूप था, यह नहीं कहा जा सकता। ___ प्रज्ञापना पर वर्तमान में जो टीकाएँ उपलब्ध हैं उनमें सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र की प्रदेशव्याख्या है। हरिभद्र जैन आगमों के प्राचीन टीकाकार हैं। उन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक जीवाजीवाभिगम, नन्दी, अनुयोगद्वार, पिण्डनियुक्ति, प्रभृति पर महत्त्वपूर्ण टीकाएं लिखी हैं । प्रज्ञापना की टीका में सर्वप्रथम जैनप्रवचन की महिमा गाई है।२३९ उसके पश्चात् मंगल का विश्लेषण किया है और साथ ही यह भी सूचित किया है कि मंगल की विशेष व्याख्या आवश्यक टीका में की गई है। भव्य-अभव्य का विवेचन करते हुए आचार्य ने वादिमुख्य कृत अभव्य-स्वभाव के सूचक श्लोक को भी उद्धृत किया है।२४० प्रज्ञापना पर दूसरी वृत्ति नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव की है। पर यह वृत्ति सम्पूर्ण प्रज्ञापना पर नहीं है केवल प्रज्ञापना के तीसरे पद—जीवों के अल्पबहुत्व—पर है। आचार्य ने १३३ गाथाओं के द्वास इस पद पर प्रकाश डाला है। स्वयं आचार्य ने उसे 'संग्रह' की अभिधा प्रदान की है। यह व्याख्या धर्मरत्नसंग्रहणी और प्रज्ञापनोद्धार नाम से भी विश्रुत है। इस संग्रहणी पर कुलमण्डनगणी ने संवत् १४४१ में एक अवचूर्णि का निर्माण किया है। आत्मानन्द जैन सभा भावनगर से प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी पर एक अवचूर्णि प्रकाशित हुई है। पर उस अवचूर्णि के रचयिता का नाम ज्ञात नहीं है। यह अवचूर्णि कुलमण्डनगणी विरचित अवचूर्णि से कुछ विस्तृत है। पुण्यविजय जी महाराज का यह अभिमत है कि कुलमण्डनकृत अवचूर्णि को ही अधिक स्पष्ट करने के लिए किसी विज्ञ ने इसकी रचना की है। २३६. अलमतिप्रसङ्गेन अवचूर्णिकामात्रमेतदिति । -प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, पृ. २८, ११३ २३७. प्रज्ञापना मलयगिरि वृत्ति, पत्र २६३-२७१ २३८. प्रज्ञापना, प्रस्तावना पृ. १५२ २३९. रागादिवध्यपटः सुरलोकसेतुरानन्ददुन्दुभिरसत्कृतिवंचतिनाम्। संसारचारकपलायनफालघंटा, जैनं वचस्तदिह को न भजेत विद्वान् ॥१॥ -प्रज्ञापना प्रदेशव्याख्या २४०. सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लाह्यकबान्धव! तवापि खिलान्यभूवन्। तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः॥१॥ -प्रज्ञापना प्रदेशव्याख्या [८६]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy