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________________ कायपरिचारणा में मनुष्य की तरह देव देवी के साथ मैथुन सेवन करते है। देवों में शुक्र के पुद्गल यहाँ बताये हैं और वे शुक्रपुद्गल देवियों में जाकर पांच इन्द्रियों के रूप में परिणत होते हैं। उस शुक्र से गर्भाधान नहीं होता२२३ क्योंकि देवों में वैक्रिय शरीर है। यह शुक्र वैक्रियवर्गणाओं से निर्मित होता है। जहाँ पर स्पर्श आदि परिचारणा बताई है उन देवलोकों में देवियां नहीं होती, पर जब उन देवों की इच्छा होती है तब सहस्रार देवलोक तक देवियां विकर्वणा करके वहाँ उपस्थित होती हैं और देव अनक्रम से उनके स्पर्श रूप, शब्द से संतुष्ट होते हैं ।२२४ टीकाकार ने यहां बताया है—उन देवों में भी शुक्रविसर्जन होता है अर्थात् देव और देवियों में सम्पर्क नहीं होता तथापि शक्र-संक्रमण होता है और उसके परिणमन से उनके रूप-लावण्य में वृद्धि होती है। आनत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्प में जब देवों की इच्छा मन:परिचारण की होती है तब देवी अपने स्थान पर रहकर ही दिव्य रूप और शृंगार सजाती है और वे देव स्वस्थान पर रहकर ही संतुष्ट होते हैं और देवी भी अपने स्थान पर रहकर ही रूप-लावण्यवती बन जाती है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि कायपरिचारणा आदि में पूर्व को अपेक्षा उत्तर की परिचारणा में क्रमशः अधिक सुख है और अपरिचारणा वाले देवों में उससे भी अधिक सुख है। इससे स्पष्ट है कि परिचारणा में सुख का अभाव है पर प्राणी चारित्रमोहनीय की प्रबलता के कारण उसमें सुख की अनुभूति करता है।२२५ वेदना: एक चिन्तन ___पैंतीसवाँ पद वेदनापद है। चौबीस दण्डकों में जीवों को अनेक प्रकार की वेदना का जो अनुभव होता है, उसकी विचारणा इस पद में की गई है। वेदना के अनेक प्रकार बताये गये हैं, जैसे कि (१) शीत, उष्ण, शीतोष्ण (२) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (३) शारीरिक, मानसिक और उभय (४) साता, असाता, सातासाता (५) दुःखा, सुखा, अदुःखा-असुखा (६) आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी (७) निदा-अनिदा आदि। संज्ञी की वेदना निदा है और असंज्ञी की वेदना को अनिदा कहा है। शीतोष्ण वेदना के सम्बन्ध में आचार्य मलयगिरि ने यह प्रश्न उपस्थिति किया है कि उपयोग क्रमिक है तो फिर शीत और उष्ण इन दोनों का युगपत् अनुभव किस प्रकार हो सकता है? प्रश्न का समाधान करते हुए लिखा है-उपयोग क्रमिक है परन्तु शीघ्र संचारण के कारण अनुभव करते समय क्रम का अनुभव नहीं होता, इसी कारण आगम में शीतोष्ण वेदना का युगपत् अनुभव कहा है।२२६ यही बात शारीरिक-मानसिक, साता-असाता के सम्बन्ध में है।२२७ आचार्य मलयगिरि ने अदुःखा-असुखा वेदना का अर्थ सुख-दुःखात्मिका किया है अर्थात् जिसे सुख संज्ञा न दी जा सके, क्योंकि उसमें दुःख का भी अनुभव है। दुःख संज्ञा नहीं दी जा सकती है क्योंकि उसमें २२३. केवलं ते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः। -प्रज्ञापनावृत्ति पत्र ५५० २२४. पुद्गलसंक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः। -प्रज्ञापनावृत्ति पत्र ५५१ २२५. प्रज्ञापनाटीका, पत्र २५२ २२६. प्रज्ञापनाटीका, पत्र ५५५ २२७. प्रज्ञापनाटीका, पत्र ५५६ [८३ ]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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