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सुख का भी अनुभव है।२२८ साता-असाता तथा सुख और दुःख में क्या भेद है? इस प्रश्न का उत्तर भी आचार्य ने यह दिया है कि वेदनीयकर्म में पुद्गलों का क्रम-प्राप्त उदय होने से जो वेदना होती है वह साता-असाता है पर जब कोई दूसरा व्यक्ति उदीरणा करता है, उस समय जो साता-असाता का अनुभव होता है वह सुख-दुःख कहलाता है।२२९
वेदना के आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी ये दो प्रकार हैं। अभ्युपगम का अर्थ अंगीकार है। हम कितनी ही बातों को स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं। तपस्या किसी कर्म के उदय से नहीं होती, वह अभ्युपगम के कारण की जाती है। तप में जो वेदना होती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है। उपक्रम का अर्थ कर्म की उदीरणा का हेतु है। शरीर में जब रोग होता है तो उससे कर्म की उदीरणा होती है इसलिए वह कर्म की उदीरणा का उपक्रम है। उपक्रम के निमित्त से होने वाली वेदना औपक्रमिकी वेदना है।२३० समुद्घात : एक चिन्तन
छत्तीसवें पद का नाम समुद्घातपद है। शरीर से बाहर आत्मप्रदेशों के प्रक्षेप को समुद्घात कहते है।२३१ दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सम्भूत होकर आत्मप्रदेशों का शरीर से बाहर जाने का नाम समुद्घात है।२३२ समुद्घात के सात प्रकार बताये हैं—वेदना समुद्घात, असातावेदनीय कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । २. कषायसमुद्घात, कषायमोहकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । ३. मारणान्तिकसमुद्घात, आयुष्य के अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर उसके आश्रित होने वाला समुद्घात। ४. वैक्रियसमद्घात, वैक्रियशरीर नामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात। ५. तैजससमुद्घात, तैजसशरीर नामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात ६. आहारकसमुद्घात, आहारकशरीरनामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात। ७. केवलिसमुद्घात, वेदनीय, नाम गोत्र और आयुष्यकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात।
इन सात समुद्घातों में से किस जीव में कितने समुद्घात पाए जा सकते हैं, इस पर विचार करते हुए लिखा है—नारक के प्रथम चार समुद्घात हैं। देवों में और तिर्यंञ्च पंचेन्द्रियों में प्रथम पाँच समुद्घात हैं। वायु के अतिरिक्त शेष एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में प्रथम तीन समुद्घात हैं। वायुकाय में प्रथम चार समुद्घात हैं। मनुष्य में सातों ही समुद्घात हो सकते हैं। जीवों की दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा से अल्पबहुत्व पर चिन्तन करते हुए बताया है कि जघन्य संख्या आहारकसमुद्घात करने वालों की है और सबसे अधिक संख्या वेदनासमुद्घात करने वालों की है। उनसे अधिक जीव ऐसे है जो समुद्घात नहीं करते। इसी तरह दण्डकों के सम्बन्ध में भी अल्पबहुत्व की दृष्टि से चिन्तन किया है। कषायसमुद्घात के चार
२२८. प्रज्ञापनाटीका, पत्र ५५६ २२९. प्रज्ञापनाटीका, पत्र ५५६ २३०. अभ्युपगमेन–अङ्गीकारणे निवृत्ता तत्र वा भवा आभ्युपगमिकी तया-शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदया -पीडया उपक्रमेण
कर्मोदीरणकारणेन निर्वृत्ता तत्र वा भवा औपक्रमिकी तया-ज्वरातिसारादिजन्यया। -स्थानांग वृत्ति पत्र ८४ २३१. समुद्घननं समुद्घात:शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः।
-स्थानांग अभयदेव वृत्ति ३८० २३२. हन्तर्गमिक्रियात्वात् सम्भूयात्मप्रदेशानां च बहिरुद्हननं समुद्घातः। -तत्त्वार्थवार्तिक १, २०, १२
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