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________________ क्रम में यह अन्तर है कि उनकी विकुर्वणा करने के बाद परिचारणा होती है। एकेन्द्रिय जीवों में परिचारणा नारक की तरह है किन्तु उनमें विकुर्वणा नहीं है, सिर्फ वायुकाय में विकुर्वणा है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में एकेन्द्रिय की तरह, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में नारक की तरह परिचारणा है। प्रस्तुत पद में जीवों के आहारग्रहण के दो भेद—आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित—बताकर भी चर्चा की गई। एकेन्द्रिय के अतिरिक्त सभी जीव आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित आहार लेते हैं परन्तु में एकेन्द्रिय सिर्फ अनाभोगनिर्वर्तित आहार ही होता है। जीव अपनी इच्छा से उपयोगपूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। वह आभोगनिर्वर्तित है और इच्छा न होते हुए भी जो लोमाहार आदि के द्वारा सतत आहार का ग्रहण होता रहता है वह अनाभोगनिर्वर्तित है। ___ आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना की टीका में लिखा है कि एकेन्द्रिय में भी अपटु मन है क्योंकि मनोलब्धि सभी जीवों में है। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक अपटु मन है तो फिर एकेन्द्रिय में ही अनाभोगनिर्वर्तित आहार कहा है और शेष में क्यों नहीं ? इस प्रश्न का सम्यक् समाधान नहीं है। आगमप्रभावक पुण्यविजय जी महाराज का ऐसा मन्तव्य है कि संभवतः रसनेन्द्रिय वाले प्राणी के मुख होता है इसलिए उसे खाने की इच्छा होती है। अतएव उसमें आभोगनिर्वर्तित आहार माना गया हो और जिसमें रसनेन्द्रिय का अभाव है उसमें अनाभोगनिर्वर्तित माना हो। इस प्रकरण में आहार ग्रहण करने वाला व्यक्ति आहार के पुद्गलों को जानता है. देखता है औह जानता भी नहीं देखता भी नहीं. आदि विकल्प कर उस पर चिन्तन किया है। अध्यवसाय के सम्बन्ध में भी प्रासंगिक चर्चा की गई है। मुख्य रूप से अध्यवसाय दो प्रकार के होते हैं१. प्रशस्त २. अप्रशस्त । तरतमता की दृष्टि से उन अध्यवसायों के असंख्यात भेद होते हैं। चौबीसों दण्डकों के जीवों के अध्यवसायों की चर्चा की गई है। देवों की परिचारणा के सम्बन्ध में चार विकल्प बताए गए हैं - १. देव सदेवी सपरिचार २. देव सदेवी अपरिचार ३. देव अदेवी सपरिचार ४. देव अदेवी अपरिचार भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान, इनमें देवियां हैं। इसलिए प्रथम विकल्प है। यहाँ पर देव और देवियों के कायिक परिचारणा है। सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक केवल देव ही होते हैं, देवियां नहीं होती। तथापि उनमें देवियों के अभाव में भी परिचारणा है। ग्रैवयक और अनुत्तर विमानों में देव हैं, देवियां नहीं है और परिचारणा भी नहीं है। द्वितीय विकल्प देव हैं, देवियां हैं और अपरिचारक हैं यह विकल्प कहीं संभव नहीं है। देवी नहीं तथापि परिचारणा किस प्रकार संभव है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है (१) सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प में स्पर्शपरिचारणा है (२) ब्रह्मलोक-लान्तक कल्प में रूपपरिचारणा है (३) महाशुक्रसहस्रार में शब्द परिचारणा है। (४) आनत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्प में मनःपरिचारणा है। [८२]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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