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________________ इस प्रकार संज्ञा के दो अर्थ हैं— प्रत्यभिज्ञान और अनुभूति । इन्हीं में मतिज्ञान का एक नाम संज्ञा निर्दिष्ट है।२१४ तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध, इन्हें एकार्थक माना है।२१५ मलयगिरि २१६ और अभयदेव २१७ दोनों ने संज्ञा का अर्थ व्यंजनावग्रह के पश्चात् होने वाली एक प्रकार की मति किया है। आचार्य अभयदेव ने दूसरा अर्थ संज्ञा का अनुभूति भी किया है । २१८ संज्ञा के जो दस प्रकार स्थानांग में बताए हैं उनमें अनुभूति ही घटित होता है । २१९ आचार्य उमास्वाति ने संज्ञी - असंज्ञी का समाधान करते हुए लिखा है कि संज्ञी वह है जो मन वाला है २२० और भाष्य में उसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि संज्ञी शब्द से वे ही जीव अभिप्रेत हैं जिनमें संप्रधारण संज्ञा होती है २२१ क्योंकि संप्रधारण संज्ञा वाले को ही मन होता है। आहार आदि संज्ञा के कारण जो संज्ञी कहलाते हैं, वे जीव यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। बत्तीसवें पद का नाम संयत है। इसमें संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत इस प्रकार संयत के चार भेदों को लेकर समस्त जीवों का विचार किया गया है । नारक, एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रय जीवों तक, अवग वासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये असंयत होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयत और संयतासंयत होते हैं। मनुष्य में प्रथम के तीन प्रकार होते हैं और सिद्धों में संयत का चौथा प्रकार नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत है । संयम के आधार से जीवों के विचार करने की पद्धति महत्त्वपूर्ण है । प्रविचारणा : एक चिन्तन चौंतीसवें पद का नाम प्रविचारणा है । प्रस्तुत पद में 'पवियारण' (प्रविचारण) शब्द का जो प्रयोग हुआ है उसका मूल 'प्रविचार' शब्द है । २२२ पद के प्रारम्भ में जहाँ द्वारों का निरूपण है वहाँ 'परियारणा' और मूल में 'परियारणया' ऐसा पाठ है । क्रीडा, रति, इन्द्रियों के कामभोग और मैथुन के लिए संस्कृत में प्रविचार अथवा प्रविचारणा और प्राकृत में परियारणा अथवा पवियारणा शब्द का प्रयोग हआ है । परिचारणा कब, किसको और किस प्रकार की सम्भव है, इस विषय की चर्चा प्रस्तुत पद में २४ दण्डकों के आधार से की गई है। नारकों के सम्बन्ध में कहा है कि उपपात क्षेत्र में आकर तुरन्त ही आहार के पुद्गल ग्रहण करना आरम्भ कर देते हैं। इससे उनके शरीर की निष्पत्ति होती है और पुद्गल अंगोपांग, इन्द्रियादि रूप से परिणत होने के पश्चात् वे परिचारण प्रारम्भ करते हैं अर्थात् शब्दादि सभी विषयों का उपभोग करना शुरू करते हैं । परिचारण के बाद विकुर्वणा —— अनेक प्रकार के रूप धारण करने की प्रक्रिया करते हैं । देवों में इस २१४. ईहाअपोहवीमंसा, मग्गणा य गवेषणा । — नंदीसूत्र ५४, गा. ६ सणासई मई पण्णा, सव्वं आभिणिबोहियं ॥ २१५. मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थन्तरम् । २१६. संज्ञानं संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थ । —नंदीवृत्ति, पत्र १८७ - तत्त्वार्थसूत्र १/१३ २१७. संज्ञान संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः । —स्थानांगवृत्ति, पत्र १९ २१८. आहारभयाद्युपाधिका वा चेतना संज्ञा । - स्थानांग वृत्ति, पत्र ४७ २१९. स्थानांग १०/१०५ २२०. संज्ञिनः समनस्काः । - तत्त्वार्थसूत्र २/२५ २२१. ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका सम्प्रधारणसंज्ञा । - तत्त्वार्थ भाष्य २ / २५ २२२. (क) कायप्रविचारो नाम मैथुनविषयोपसेवनम् । (ख) प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् । सर्वार्थसिद्धि ४-७ [ ८१ ]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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